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अमर-भारती
दीपक प्रज्वलित होकर बाहर अपना प्रकाश फैलाता है, अन्धकार पर विजय पाता है । पर यदि उसके अन्दर तेल न हो, तो वह कैसे प्रकाश दे सकता है ? कैसे अन्धकार से लड़ सकता है ? अन्दर तेल न होने से वह बत्ती को जला कर अपनी धुंआ छोड़कर ही समाप्त हो जाता है । साधक जीवन की भी ठीक यही अवस्था होती है । जिस साधक के जीवन में त्याग वैराग्य, संयम - साधना और सत्य-अहिंसा का तेल नहीं है, मनोबल नहीं है, आत्म-शक्ति नहीं है, वह जीवन क्षेत्र में कैसे चमक सकते है ? जनता की श्रद्धा और विश्वास को कैसे प्राप्त कर सकते हैं ? उन का खोखला जीवन जनता को कैसे प्रेरणा दे सकता है ?
पूज्य श्री रघुनाथजी महाराज का संयम साधना का काल बहुत लम्बा रहा है । वे साधना के पथ पर स्वयं बढ़े हैं और दूसरों को भी उन्होंने सतत प्रेरणा दी है । वे जीवन कला के सच्चे पारखी थे । उन्होंने अपने एक योग्य शिष्य को भी पथ भ्रष्ट होते देख कर छोड़ दिया था । शिष्य-मोह में फँसकर उन्होंने उसकी दुर्बलता की लीपा-पोती नहीं की थी । हमें उनके जीवन से यह शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए। आज तो हम देखते हैं कि एक साधारण शिष्य का भी गुरु व्यामोह नहीं छोड़ सकता । इतना ही नहीं, वह अपने शिष्य की भूलों को छुराने का भी प्रयत्न करता है । यह शिष्य - व्यामोह ही हमारी गड़बड़ी का कारण बन जाता है ।
समय बहुत हो गया है, हमें अपना दूसरा काम भी करना है । फिर भी में इतना अवश्य कहूँगा, कि हमें उस महान साधक के गुणों से बड़ा भारी प्रकाश मिलता है । उनके त्याग - वैराग्य की जगमगाती ज्योति आज भी चमक रही है । उनके तपोमय जीवन से प्रभावित होकर हम सब उनके चरणों में अपनी श्रद्धा के पुष्प चढ़ाते हैं । किसी भी महापुरुष के साधनामय जीवन पर अपनी श्रद्धा के पुष्प चढ़ाना, वाणी का तप है ।
संस्कृत साहित्य के उद्भट विद्वान और महाकवि श्री हर्ष ने कहा है कि किसी योग्य विद्वान के प्रति अथवा किसी साधक के प्रति अनुराग न रखना, उसके गुणों का उत्कीर्तन न करना भी एक प्रकार का जीवन-शल्य है, वाणी की विफलता है । कवि कहता है
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वाग्जन्म वैफल्यमसह य शल्यं, गुणाधिके वस्तुनि मौनिता चेत् ॥
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