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अमर-भारती
लग गई । सेठजी सो रहे थे । सेठानी धीमी आवाज में बोली- घर में चोर घुस आया है । सेठ ने कहा- मुझे पता है, चुप रह । चोर घर की कीमती चीजें समेटता रहा, गाँठ बाँध ली, सिर पर भी रख ली । सेठ की चुप्पी देखकर सेठानी ने फिर कहा-चोर सामान लेकर जाने को है । सेठ ने कहा - चुप रह, मुझे भी तो पता है। चोर चीजें लेकर घर से बाहर हो गया । सेठानी ने कहा- वह तो गया । सेठ ने कहा मुझे भी ज्ञान है कि बहुत-सा सामान ले जा रहा है । सेठ की वेपरवाही पर सेठानी को रोष आया और बोली - " धूल पड़े तुम्हारे इस ज्ञान पर । घर लुटता रहा और तुम देखते ही रहे । इस देखने से तो न देखना ही अधिक अच्छा रहता । " जो ज्ञान उपयोग में न आये वह किस काम का ? वह तो मस्तिष्क का भार मात्र है ।
आत्मा रूप घर में विषय कषाय का चोर आ गया । विवेक बुद्धि मन से कहती है - सावधान, अन्दर चोर है । परन्तु मन कहे - हाँ, मुझे पता हैं । पर करता कुछ भी नहीं । आत्मा की शान्ति, समता और संतोष धन को कषाय लुटेरा लूट रहा है, फिर भी मन कुछ नहीं कर पाता । जीवन में इस प्रकार की जानकारी से कोई लाभ नहीं होता ।
पण्डित और साधक में बड़ा अन्तर है । पण्डित जानता बहुत कुछ है, पर करता कुछ भी नहीं । साधक जानता कम है, पर करता अधिक है । गधे पर चन्दन लाद दो, वह उसके भार को समझ सकता है, पर उसके महत्व को नहीं । इसलिए जैन संस्कृति विचार और आचार दोनों को समान रूप में महत्व देती रही है। ज्ञान से क्रिया में चमक और क्रिया से ज्ञान में दमक आती है । दोनों के सुमेल से जीवन सुन्दर बनता है ।
लाल भवन, जयपुर
२-८-५५
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