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________________ वर्षावास की पूर्णाहुति ७३ का । श्रमण परम्परा में नमस्कार गुणों को किया जाता है, व्यक्ति विशेष को नहीं । सन्त में यदि सन्त के गुण हैं, तो वह आप की भक्ति का, आपकी श्रद्धा का और आपकी सेवा का सहज ही पात्र बन जाता है । मैं जयपुर संघ से कहूँगा कि वह गुणों का आदर करना सीखे । जाति पूजा, कुल पूजा और सम्प्रदाय पूजा का आज युग नहीं रहा । जैन परम्परा तो प्रारम्भ से ही गुण पूजा में विश्वास लेकर चली है । गुणों की पूजा से मनुष्य का मन महात् होता है. मानव की आत्मा विराट बनती है । जग मनुष्य के अन्तस में प्रसुप्त सद्गुण जागृत होते हैं, तब उसका भगवद् भाव प्रबुद्ध होता है । 'मेरा विश्वास है कि प्रत्येक संघ अपने आप में एक विराट शक्ति है, विराट चेतना है, जलती ज्योति है । वृक्ष को जड़ जब तक मजबूत है, तब तक वह हरा-भरा रहता है। हवा का तूफान उसे उखाड़ नहीं सकता, सूर्य की किरण उसे जला नहीं सकती और मेघों की महा वृष्टि उसे गला नहीं सकती । संघ भी एक सघन और छायादार वृक्ष है, जिसकी शीतल छाया में हम सन्त जन भी सुख, शान्ति और समता का अनुभव करते हैं । संघटन संघ की जड़ है । स्नेह, सद्भाव और भक्ति उसके पत्र, पुष्प और फल हैं । मैं जयपुर के धर्म प्रेमी श्रावकों से आशा करता हूँ कि वे इस संघ वृक्ष को सदा हरा-भरा रखेंगे | अपना स्नेह, अपना प्रेम और अपनी शुभ भावना के मधुर व शीतल जल से सतत इसका सिंचन करते रहेंगे। संघ की अभिवृद्धि और समृद्धि में ही हम सब की अभिवृद्धि और समृद्धि निहित है । संघ सुदृढ़ है, तो फिर चिन्ता की कोई बात नहीं रहती । आप में स्नेह और संघठन रहेगा, तो साधु सन्त भी यहाँ आनेको उत्साहित रहेंगे । आपकी शोभा इसी स्नेह-सद्भाव में है । लाल भवन, जयपुर Jain Education International For Private & Personal Use Only २८-११५५ www.jainelibrary.org
SR No.001352
Book TitleAmarbharti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Epistemology, L000, & L005
File Size10 MB
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