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योग-शास्त्र
पड़ा है । वस्तुतः वेदों में आध्यात्मिक वर्णन बहुत कम देखने को मिलता है। ऋग्वेद में 'योग' शब्द अनेक स्थानों पर पाया है, परन्तु सर्वत्र उसका अर्थ-जोड़ना, मिलाना, संयोग करना इतना ही है; ध्यान एवं समाधि अर्थ नहीं है । इतना ही नहीं, उसके बाद योग-विषयक ग्रन्थों में योग के अर्थ में प्रयुक्त, ध्यान, वैराग्य, प्राणायाम, प्रत्याहार आदि अर्थ में योग शब्द का उल्लेख नहीं किया है। इसके अतिरिक्त अतिप्राचीन उपनिषदों में भी 'योग' शब्द का प्राध्यात्मिक अर्थ में प्रयोग नहीं हुआ है। कठोपनिषद, श्वेताश्वतर उपनिषद जैसे उत्तरकालीन उपनिषदों में 'योग' शब्द : का आध्यात्मिक अर्थ में प्रयोग हुअा है ।२ फिर भी इतना व्यापक रूप से नहीं हया, जितना कि 'तप' शब्द का हुआ है। ठेठ ऋग्वेद से लेकर उपनिषद काल तक के साहित्य का अनुशीलन-परिशीलन करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि 'योग' शब्द की अपेक्षा 'तप' शब्द का आध्यात्मिक अर्थ में अधिक व्यापक रूप से प्रयोग हुआ है।
उपनिषदों में जहाँ-तहाँ 'योग' शब्द आध्यात्मिक अर्थ में प्रयुक्त हुआ है, तो वह सांख्य परंपरा या उसके समान कसी अन्य परम्परा के साथ प्रयुक्त हुआ है। फिर भी इतना तो कहना होगा कि उपनिषद काल १. ऋगवेद १, ५, ३, १, १८, ७; १, ३४, ९; २, ८, १; ६, ५८,
३; और १०, १६६, ५।। २. योग प्रात्मा।
-तैतिरीय उप०, २, ४. तं योगमिति मन्यन्ते स्थिरामिन्द्रिय-धारणाम् । अप्रमत्तस्तदा भवति योगो हि प्रभवाप्ययौ ॥
-कठोपनिषद, २, ६, ११. अध्यात्म-योगाधिगमेन देवं मत्वाधीरो हर्ष-शोको जहानि ।
-कठोपनिषद १, २, १२. तत्कारणं सांख्ययोगाधिगम्यं ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाशः।
-श्वेताश्वतर, उप० ६, १३.
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