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एक परिशीलन विचारक एवं दार्शनिक एकमत नहीं है। आत्मा को जड़ से भिन्न एक स्वतंत्र द्रव्य मानने वाले विचारक भी दो भागों में विभक्त है। कुछ विचारक एकात्मवादी हैं और कुछ अनेकात्मवादी हैं। इसके अतिरिक्त ध्यापकत्व-प्रव्यापकत्व, परिणामित्व-अपरिणामित्व, क्षणिकत्व-मित्यत्व प्रादि के अनेक विचार-भेद रहे हुए हैं। परन्तु, यदि इन अवान्तर भेदों को एक तरफ भी रख दें, तो मुख्य दो भेद रह जाते हैं-१. एकात्मवादी,
और २. अनेकात्मवादी। इस आधार पर योग-साधना भी दो परंपराओं में विभक्त हो जाती है । कुछ उपनिषद', योगवासिष्ठ, हठयोग-प्रदीपिका प्रादि योग-विषयक ग्रन्थ एकात्मवाद को लक्ष्य में रखकर लिखे गए हैं और महाभारत, योग-प्रकरण, योग-सूत्र, तथा जैन और बौद्ध योग-शास्त्र अनेकात्मवाद के आधार पर लिपि-बद्ध किए गए हैं। इस तरह योग परंपरा दो धाराओं में प्रवहमान रही है।
यदि हम दार्शनिक दृष्टि से सोचते हैं, तो भारतीय-संस्कृति तीन घारामों में प्रवहमान रही है-१. वैदिक, २. जैन, और ३. बौद्ध । इस अपेक्षा से योग-साधना या योग-साहित्य की भी तीन परम्पराएँ मानी जा सकती हैं-१. वैदिक योग परंपरा, २. जैन योग परंपरा, और ३. बौद्ध योग-परंपरा। तीनों परम्पराओं का अपना स्वतंत्र चिन्तन है और मौलिक विचार है। और सबने अपने दृष्टिकोण से योग पर सोचाविचारा एवं लिखा है। फिर भी तीनों परंपराओं के विचारों में भिन्नता के साथ बहुत-कुछ साम्य भी है। आगे की पंक्तियों में हम इस पर क्रमशः विचार करेंगे। वैदिक योग और साहित्य
वैदिक परंपरा में वेद मुख्य हैं। उनमें प्राचीनतम ग्रन्थ 'ऋग्वेद' है । उसका अधिकांश भाग आधिभौतिक एवं आधिदैविक वर्णन से भरा १. ब्रह्मविद्या, क्षुरिका, चूलिका, नाद-बिन्दु, ब्रह्म-बिन्दु, अमृत-बिन्दु,
ध्यान-बिन्दु, तेजोबिन्दु, शिखा, योगतत्त्व, हंस प्रादि ।
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