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एक परिशीलन है, तो अहंभाव एवं ममत्व का परित्याग उसकी आत्मा है। क्योंकि अहंभाव आदि मनोविकारों का परित्याग किए बिना मन, वचन एवं काय योग में स्थिरता पा नहीं सकती और मन, वचन तथा कर्म में एकरूपता एवं समता का विकास नहीं हो सकता। और योगों की स्थिरता, एकरूपता हुए बिना तथा समभाव के आए बिना योगसाधना हो नहीं सकती। अतः योग-साधना के लिए मनोविकारों का परित्याग आवश्यक है।
जिस साधना में एकाग्रता तो है, परन्तु अहंत्व-ममत्व का त्याग नहीं है, वह केवल व्यावहारिक या द्रव्य साधना है। पारमार्थिक या भाव योग-साधना वह है, जिसमें एकाग्रता और स्थिरता के साथ मनोविकारों का परित्याग कर दिया गया है। अहंत्व-ममत्व भाव का त्यागी प्रात्मा किसी भी प्रवृत्ति में प्रवृत्त हो-भले ही वह स्थूल दृष्टि वाले व्यक्तियों को बाह्य प्रवृत्ति परिलक्षित होती हो, वह पारमार्थिक योगी कहलाता है। इसके विपरीत स्थूल दृष्टि से देखने वाले व्यक्ति जिसे प्राध्यात्मिक साधना समझते हैं, उसमें प्रवृत्त व्यक्ति अहंत्व-ममत्व में रमण करता है, तो उसकी वह योग-साधना केवल द्रव्य-साधना है, बाह्य योग है । उससे उसका साध्य सिद्ध नहीं हो सकता। अतः विचारकों ने अहंत्व-ममत्व भाव से रहित समत्व भाव की साधना को ही सच्चा योग कहा है। योग परंपराएँ :- विश्व की किसी भी वस्तु को पूर्ण बनाने के लिए दो बातों की
आवश्यकता पड़ती है-एक पदार्थ-विषयक ज्ञान और दूसरी क्रिया । ज्ञान और क्रिया के सुमेल के बिना दुनिया का कोई भी कार्य पूरा नहीं . १. योगस्य कुरु कर्माणि संगं त्यक्त्वा धनञ्जय । सिद्धयसिद्धयोः समोभूत्वा समत्वं योगं उच्यते ॥
-गीता, २, ४८.
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