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योग-शास्त्र साधना का कारण है । परन्तु, योग-साधना के पूर्व ज्ञान इतना स्पष्ट नहीं रहता, जितना साधना के बाद होता है। तदनुरूप क्रिया एवं साधना के होने से चिन्तन में विकास होता है, साधना के नए अनुभव होते हैं, इससे ज्ञान में निखार आता है। अतः योग-साधना के पश्चात् होने वाला अनुभवात्मक ज्ञान स्पष्ट एवं परिपक्व होता है कि उसमें धुंधलापन नहीं रहता या कम रहता है। अतः गीता की भाषा में सच्चा ज्ञानी वही है, जो योगी है। जिसमें योग या एकग्रता का अभाव है, वह ज्ञानी नहीं, ज्ञान-बन्धु-ज्ञानी का भाई या संबंधी है ।२ जैन-आगम में भी यह बताया है कि सम्यक् साधना-चारित्र के द्वारा साधक घातिकर्म का क्षय करके पूर्ण ज्ञान-केवल-ज्ञान को प्राप्त करता है। बिना चारित्र के उसके ज्ञान में पूर्णता नहीं आ पाती। अतः साधना के लिए ज्ञान आवश्यक है और ज्ञान के विकास के लिए साधना । ज्ञान और योग या क्रिया की संयुक्त साधना से ही साध्य सिद्ध होता है, अन्यथा नहीं है। व्यावहारिक और पारमार्थिक योग
योग एक साधना है। उसके दो रूप हैं-१. बाह्य और २. अभ्यान्तर । एकाग्रता यह उसका बाह्य रूप है और अहंभाव, ममत्व आदि मनोविकारों का न होना उसका अभ्यान्तर रूप है। एकाग्रता योग का शरीर
१. यत्सांख्यः प्राप्यते स्थानं तद्योगरपि मतोऽधिकः ।
एकं सांख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति ॥ -गीता ५, ५ २. व्याचष्टे यः पठति च शास्त्रं भोगाय शिल्पिवत् । यतते न त्वनुष्ठाने ज्ञानबन्धुः स उच्यते ॥
योगवासिष्ठ, सर्ग, २१. ३. ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः; सम्यग्दर्शम-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः।
-तत्त्वार्थ सूत्र, १, १.
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