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निन्दनीय कवि
१. विद्वत्कवयः कवयः, केवल कवयस्तु केवलं कपयः । कुलजा या सा जाया, केवलजाया तु केवलं माया ।।
__ -प्रसंग-रत्नावली विद्वान् कवि ही वास्तव में कवि हैं । नाम के कवि तो काम अर्थात् बन्दर के तुल्य हैं । कुलीन-पत्नी ही पत्नी है. दूसरी तो केवल मायारूप हैं।
२. गणयन्ति नापशब्दं, न वृत्तभङ्ग क्षयं न चार्थस्य । रसिकत्वेनाकुलिता, वेश्यापतय: कुकवयश्च ।।
-सुभाषितरत्नभाण्डागार, पृष्ठ ३६ जो रसिकता से आकुल होकर अपशब्द, वृत्तभङ्ग एवं अक्षय
को नहीं गिनते, वे या तो वश्यापति है या कुकवि हैं। ३. कविरनुहरति च्छायां, पदमेक पादमेकमधं वा । सकलप्रबन्धहर, कविताक नमस्तस्मै ।।
-सुभाषितरत्नभाण्डागार, पृष्ठ ३६ कपि छाया का हरण करता है, समस्यापूर्ति आदि में एक पद अथवा आधा पद भी ग्रहण कर लेता है, किन्तु वह कधि तो नमस्कार करने के ही योग्य है, जो दुमरों के काम से ममुचा प्रवन्ध ही उठा लेता है।