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ज्ञानाचार गाथा-४
अप्रशस्त मार्ग पर चलती इन्द्रियों से ज्ञानाचार दूषित होता है। इसलिए इन्द्रियों का यह अप्रशस्त प्रवर्तन ही ज्ञान का अतिचार है। दिनभर में ऐसे जो भी अतिचार लगे हों उनकी इस गाथा द्वारा निन्दा एवं गर्दा करनी है।
निन्दा, गर्दा करके अप्रशस्त भावों को छोड़कर पुनः अपने ज्ञान में स्थिर होकर, श्रावक अतिचार के मार्ग से लौटकर एक बार फिर पुण्योदय से प्राप्त इन्द्रियों का उपयोग केवल सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति के लिए करने का संकल्प करता है;
और अपने संकल्प को सफल बनाने के लिए भगवान के वचनों का चिंतन मनन करके अपना समग्र जीवन प्रभु के वचनानुसार गुजारने का प्रयत्न करता है। जैसे कि आँखों का उपयोग मुख्यतया प्रभु दर्शन, सत्शास्त्र के वाचन एवं जीवदया के पालन में करता है। इसके सिवाय आँखों का उपयोग करना पड़े तो पूरी सावधानी पूर्वक, कहीं भी रागादि-भावों की वृद्धि न हो जाए इसकी पूरी सतर्कता रखकर करता है। आँखों की तरह सर्व इन्द्रियों के ऐसे व्यापार को प्रशस्त व्यापार कहते हैं। इस तरह इन्द्रियों को प्रशस्त मार्ग पर प्रवर्तित करने से ज्ञानाचार में अतिचार लगने की संभावना बहुत कम हो जाती है ।
जिज्ञासा : पाँचों इन्द्रियों को अपने अपने विषय में प्रवर्तमान कराना, उसमें ज्ञानाचार का अतिचार अर्थात् ज्ञानाचार विषयक दोष कैसे कह सकते हैं ?
तृप्ति : पुस्तक, पेन, पत्र आदि ज्ञान के साधन होने से उनका प्रयोग सिर्फ सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति के लिए करना चाहिए। सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति के अलावा उनका उपयोग हो तो वह ज्ञान की आशातना मानी जाती है जिससे ज्ञानावरणीय कर्म का बंध होता है। उसी तरह पाँचों इन्द्रियाँ भी ज्ञान का साधन हैं। इसलिए, उनका उपयोग भी सम्यग् ज्ञान की प्राप्ति के लिए ही करना चाहिए। फिर भी पाँचों इन्द्रियों का उपयोग ज्ञान साधना के लिए न करते हुए विषय साधना के लिए करने से, ज्ञान के साधनों की आशातना-विराधना होती है। इसलिए, इन्द्रियों का दुरुपयोग ज्ञानाचार की विराधना रूप है और उससे ज्ञानावरणीय कर्म का बंध होता है।
चउहिं कसाएहि अप्पसत्थेहिं - अप्रशस्त चार कषायों द्वारा (जिस कर्म का बंध किया हो।)