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वंदित्तु सूत्र
ऐसी प्रार्थना द्वारा वह अपने हृदय को ऐसे भावों से भावित करता है, मानादि दोषों के प्रति ऐसी जुगुप्सा पैदा करता है कि निमित्त मिलने पर भी मान-सम्मान या वैषयिक भोग की भावना जागृत न हो एवं इस व्रत का निरतिचार पालन कर, समाधि मरण पाकर, सद्गति की परंपरा द्वारा, शिवसुख पा सके। चित्तवृति का संस्करण : अंत समय की तैयारी :
आराधना का अंतिम फल समाधिमरण है। मरण को समाधिमय बनाने के लिए साधक को हमेशा तैयारी रखनी चाहिए एवं शास्त्र में बताई हुई इन भावनाओं से हृदय को विशेष प्रकार से भावित करना चाहिए।
एकत्व भावना - मैं अकेला आया हूँ एवं मुझे अकेले ही जाना है। मुझे मेरे कर्मानुसार ही सुख-दु:ख मिले हैं। दुःख में सहायता करने वाला एवं सुख देने वाला, मेरे कर्म के सिवाय और कोई नहीं। इस प्रकार एकत्व भावना से हृदय को भावित करना चाहिए।
श्रुत भावना - समाधिभावपूर्वक शास्त्र पंक्तिओं को पढ़कर, विचारकर, कंठस्थ करके उसके ऊपर गहरी अनुप्रेक्षा करके श्रुत को इस रीति से भावित करना चाहिए कि चाहे कैसी भी आपत्ति आए उसके सहारे मन को समाधि में रख सके।
तप भावना - यथाशक्ति तप चालू रखना, जिसके कारण रोगादि में यदि आहार-पानी न लिया जा सके तब या स्वेच्छा से अनशन आदि लिया हो तो क्षुधा-तृष्णा की वेदना हो तब मन व्याकुल न हो जाए।
सत्त्व भावना - महापुरुषों के चरित्र का विचार कर सर्व स्थिति में निर्भय रहने का प्रयत्न करना।
बल भावना - किसी भी प्रकार की आपत्ति में धीरज न टूटे उसके लिए शरीर बल एवं मनोबल को तैयार करने के लिए सतत प्रयत्न करना चाहिए। इसके उपरांत नीचे की बातों की भी सतत भावना करनी चाहिए। • आत्मा शरीर से भिन्न है यह बात सुनी हुई है, समझ में भी आती है, परंतु प्रतीति नहीं होती, उसकी प्रतीति के लिए हर पल प्रयत्न करना चाहिए ।