Book Title: Sutra Samvedana Part 04
Author(s): Prashamitashreeji
Publisher: Sanmarg Prakashan

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Page 275
________________ वंदित्तु सूत्र सम्यग्दर्शन प्राप्त करके प्रतिक्रमण के सुविशुद्ध भाव को प्राप्त करने का प्रयत्न करना है । अतीत के पापों के प्रति तीव्र पश्चात्ताप का भाव प्रकट करना है एवं जब जब समय मिले तब तब कायोत्सर्गादि उत्तरगुणों का आसेवन कर, वैद्य जैसे व्याधि को दूर करता है उसी प्रकार मुझे मेरे कषायों को एवं कषाय से प्रकट होने वाले दोषों को दूर करना है। प्रभु ! आपके प्रभाव से मुझे इसमें सफलता प्राप्त हो।' अवतरणिका: २५२ यही बात सूत्रकार अन्य दृष्टांत द्वारा अधिक स्पष्ट करते हैं। गाथा : जहा विसं कुट्ठगयं, मंत- मूल विसारया । विज्जा हणंति मंतेहिं, तो तं हवइ निव्विसं ॥ ३८ ॥ अन्वय सहित संस्कृत छाया : यथा मन्त्र-मूल-विशारदाः वैद्या: कोष्ठगतं विषम् । मन्त्रैः घ्नन्ति, ततः स निर्विषः भवति ।। ३८ । गाथार्थ : मंत्र एवं मूल के विशेषज्ञ वैद्य जैसे पेट में गए हुए जहर को मंत्र एवं मूल द्वारा नाश कर देते हैं, जिससे वह विषग्रस्त मानव निर्विष हो जाता है, उसी तरीके से अल्प पाप बंधवाला श्रावक भी प्रतिक्रमणादि से पापमुक्त हो जाता है। विशेषार्थ : जहा विसं कुट्ठयं मंत-मूल-विसारया विज्जा हणंति मंतेहिं - जैसे पेट में गए हुए विष को, मंत्र मूल का विशेषज्ञ वैद्य, मंत्रों द्वारा हनन करता है। : प्राण नाशक वस्तु को विष कहते हैं । यह विष दो प्रकार का होता है। १. स्थावर और २. जंगम । उसमें अफीम, सोमल (पोटेशियम साइनाइड) वगैरह को स्थावर विष कहते हैं एवं सर्प बिच्छू आदि प्राणियों के विष को जंगम विष कहते हैं। इन दोनों प्रकार के विष में से कोई भी प्रकार का विष अगर शरीर में जाए तो इन्सान की मृत्यु हो सकती है। जो वैद्य ज़हर उतारने वाले मंत्रों एवं औषधियों

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