Book Title: Sutra Samvedana Part 04
Author(s): Prashamitashreeji
Publisher: Sanmarg Prakashan

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Page 276
________________ सम्यग्दृष्टि का प्रतिक्रमण गाथा- ३८-३९ को जानते हैं, मात्र जानते ही नहीं अपितु अनुभवों द्वारा उनकी विधि, मात्रा आदि का जिन्होंने विशेष ज्ञान प्राप्त किया हो, वैसे मंत्र - मूल के विशेषज्ञ वैद्य, पेट में गए हुए ऐसे विष का भी नाश कर सकते हैं। तो तं हवइ निव्विसं - (मंत्रों द्वारा जहर का हनन होता है) इस कारण से वह निर्विष होता है। मंत्र शास्त्र के जानकार गारूडिक विधिपूर्वक मंत्रों के शब्दों का उच्चारण करते हैं, उच्चरित शब्द विषव्याप्त व्यक्ति के शरीर को स्पर्श करते हैं एवं धीरे-धीरे उसके शरीर में से ज़हर नष्ट होता है और वह व्यक्ति निर्विष बन जाता है। अवतरणिका : ऊपर की गाथा में बताए हुए दृष्टांत का उपनय बताते हुए कहते हैं गाथा : २५३ एवं अट्ठविहं कम्मं, राग-दोस - समज्जिअं । आलोअंतो अ निंदंतो, खिप्पं हणइ सुसावओ ।। ३९ ।। अन्वय सहित संस्कृत छाया : एवं आलोचयन् च निन्दन्, सुश्रावकः | राग-द्वेष- समर्जितम्, अष्टविधं कर्म क्षिप्रं हन्ति ॥ ३९ ॥ गाथार्थ : इस प्रकार (सुवैद्य जिस प्रकार जहर का नाश करता है उस प्रकार ) आलोचना ' एवं निंदा करता हुआ सुश्रावक, राग, द्वेष के संयोग से एकत्रित किए कर्मों का शीघ्रता से नाश करता है। हुए विशेषार्थ : आठ अट्ठविहं कम्मं राग-दोस - समज्जिअं - राग और द्वेष के कारण उपार्जित किए गए आठ प्रकार के कर्मों का । 1. इस गाथा के संदर्भ में आलोचना का अर्थ है 'चारों तरफ से देखना, खोजना, सूक्ष्म रीति से आत्म निरीक्षण करना, एवं निंदा का अर्थ है जुगुप्सा अथवा तिरस्कार भाव ।

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