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वंदित्तु सूत्र
४. ऋजु व्यवहारी :
ऋजु अर्थात जिसका व्यवहार सहज हो वह ऋजुव्यवहारी होता है। चार गुणों वाला ऋजुगुण व्यवहारी कहलाता है।
१. यथार्थ भाषण - जैसा है वैसा यथार्थ अविसंवादी वचन बोलता हो। २. अवंचिका क्रिया - मन-वचन काया से अन्य को न ठगता हो। ३. अपाय कथक - अशुद्ध व्यवहार करने वाले को भविष्य में जो अपाय प्राप्त होगा उसे बताने वाला होता है। इसलिए, हे भद्र ! चोरी वगैरह न करो । ये पाप, इस लोक में और परलोक में अनर्थ करने वाले हैं' - ऐसी हित शिक्षा देता हो। ४. मैत्री भाव - सद्भाव से निष्कपट मैत्री भाव वाला होता हो । ५. गुरुशुश्रुषा (सेवा)कारी : निम्न चार गुण जिसमें होते हैं वह गुरु सेवाकारी है। १. सेवा - गुर्वादि की सेवा - पर्युपासना करता हो । २. कारण - गुरू की प्रशंसा आदि करके जो दूसरे लोगों को भी गुरू की सेवा
में जोड़ता हो । ३.संपादन- गुरू को आवश्यक औषधादि द्रव्य उपलब्ध करवाता हो । ४.भाव - गुरूजनों की इच्छानुसार आचरण करता हो ।
इन चार प्रकार से आराध्य गुरूवर्ग की सेवा करनेवाला गुरूशुश्रुषाकारी बनता है। यद्यपि माता, पिता, कलाचार्य आदि भी गुरू कहलाते हैं तो भी यहाँ धर्म का अधिकार होने से धर्माचार्य वगैरह को ही गुरू रूप माना गया है। ६. प्रवचनकुशल : जिसमें छ: गुण होते हैं, वह प्रवचन कुशल होता है। १. सूत्र कुशल - श्रावक-अवस्था के योग्य सूत्र के विषय में कुशलता प्राप्त
की हो और श्रावक योग्य सूत्रों का अभ्यास करता हो । २. अर्थ कुशल - उन सूत्रों में निहित अर्थ को संविग्न गीतार्थ के पास समझ
कर अर्थ में कुशलता प्राप्त की हो।