________________
सम्यग्दृष्टि का प्रतिक्रमण गाथा-४१
२६५
वंदन करना चाहिए। ४. जब जब पाप हो जाए तब तब उस पाप की निन्दा, गर्दा करके उस पाप से पीछे हटने का यत्न कर प्रतिक्रमण करना चाहिए एवं ५. जीवन में पुनः पुनः पाप न हो इसलिए मन, वचन एवं काया को शुभ स्थान में स्थिर करने के यत्न रूप कायोत्सर्ग करना चाहिए। ६. पाप के विचारमात्र से मन को मुक्त रखने के लिए और दोबारा वही पाप न हो जाए इस लिए देव-गुरु की साक्षी में पाप न करने का पच्चक्खाण करना चाहिए।
इस रीति से छ: आवश्यकों में सतत प्रयत्न करने की भावना होने पर भी प्रमादादि दोषों के कारण जिस समय जो आवश्यक करने योग्य हो और वह न हुआ हो तो भी दिवस एवं रात्रि के अंत में तो श्रावक इन छ: आवश्यकरूप प्रतिक्रमण की क्रिया अवश्य करता है।
इस तरह प्रतिक्रमण छ: आवश्यक में से एक आवश्यक है फिर भी छ: आवश्यक के समूह को भी प्रतिक्रमण शब्द से ही सूचित किया जाता है। इसलिए छ: आवश्यक क्रियाएँ का समुदाय षड् आवश्यक के बजाय प्रतिक्रमण के रूप में ही प्रसिद्ध है। जिस कारण से अवश्य करने योग्य है उस कारण से वह आवश्यक है अथवा आवश्यक पद में 'आ' शब्द मर्यादा एवं अभिविधि अर्थ का वाचक है। इससे मर्यादा तथा अभिविधि (व्याप्ति) द्वारा गुणों का आधार आवश्यक है अथवा जो 'आ' अर्थात् समस्त प्रकार से जीव को ज्ञानदर्शन गुणोंवाला बनाता है वह आवश्यक' अथवा सान्निध्य, भावना तथा आच्छादन द्वारा जो गुणों से आत्मा को वासित करता है वह आवासक-आवश्यक कहलाता है।' (सुगंध या धूप के सान्निध्य से जिस प्रकार वस्त्र सुवासित बन जाता है, उसी प्रकार जिस क्रिया का सान्निध्य आत्मा को गुणों द्वारा आच्छादित कर शोभायमान करता है वह आवासकआवश्यक है। आयुर्वेद में जिस प्रकार प्रवालपिष्ट आदि औषाधियाँ को चंद्र की किरणों या गुलाब जल द्वारा भावन करने में आती हैं उसी प्रकार जिस क्रिया द्वारा आत्मा के गुणों का भावन होता है वह आवश्यक कहलाता है। जो क्रिया आत्मा को दोषों से संवरण करे - आच्छादन करे अर्थात् जो क्रिया आत्मा में दोषों को आने ही न दे वह आवासक - आवश्यक।) आवश्यक-क्रिया दो प्रकार की है - द्रव्य- आवश्यक और भाव-आवश्यक। इसमें शरीर के रक्षण के लिए की गई भोजन, शयन, शौच आदि क्रियाएँ द्रव्य-आवश्यक हैं, एवं आत्मा की रक्षा के लिए की हुई सामायिक आदि क्रियाएँ भाव-आवश्यक हैं। यहाँ भाव आवश्यक प्रस्तुत होने से उसका ही आवश्यक' की तरह व्यवहार किया है।