Book Title: Sutra Samvedana Part 04
Author(s): Prashamitashreeji
Publisher: Sanmarg Prakashan

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Page 306
________________ धर्माराधना से उपसंहार गाथा- ४७ के विविध प्रसंगों को स्मरण में लाकर उन प्रसंगों में आपकी वाणी एवं काया के उचित व्यवहार, आपकी मन:स्थिति, आपकी आध्यात्मिक विचार शैली का अभ्यास करूँ । आपके श्रेष्ठ व्यवहार से प्रभावित होकर मैं भी अपनी जीवन पद्धति बदल सकूँ । प्रभु ! आपके प्रभाव से मुझ में यह संकल्प सफल करने का सत्त्व एवं समझ प्रकट हो ऐसी प्रार्थना करता हूँ।' अवतरणिका : प्रतिक्रमण से शुद्ध हुआ श्रावक शुभ भावना के स्रोत में आगे बहता हुआ कहता है - गाथा : मम मंगलमरिहंता, सिद्धा साहू सुअं च धम्मो अ । सम्मद्दिट्ठी देवा, दिंतु समाहिं च बोहिं च ||४७ ।। अन्वय सहित संस्कृत छाया : अर्हन्तः सिद्धाः साधवः श्रुतं च धर्मः च मम मङ्गलम् । सम्यग्दृष्टयः देवा: समाधिं च बोधिं च ददतु ।। ४७ ।। गाथार्थ : २८३ अरिहंत भगवंतों, सिद्ध भगवंतों, साधु भगवंतों तथा श्रुत एवं चारित्र धर्म मेरे लिए मंगल हैं, एवं 'च' शब्द से वे ही उत्तम हैं एवं वे ही शरण योग्य हैं। सम्यग्दृष्टि देव मुझे समाधि और बोधि दीजिए। विशेषार्थ : मम मंगलमरिहंता, सिद्धा साहू सुअं च धम्मो अ- अरिहंत भगवंत, सिद्ध भगवंत, साधु भगवंत तथा श्रुत धर्म तथा चारित्र धर्म ही मेरे मंगल हैं। सूत्र के अन्त में श्रावक अपनी भावना व्यक्त करते हुए कहता है कि 'हे भगवंत ! मेरे अज्ञान एवं अविवेक के कारण आज तक अमंगलभूत एवं अकल्याण करने वाली संसार की सामग्री को ही मैंने मंगल एवं कल्याण करने

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