Book Title: Sutra Samvedana Part 04
Author(s): Prashamitashreeji
Publisher: Sanmarg Prakashan

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Page 313
________________ वंदित्तु सूत्र हुए वह ' पूज्य गुरुभगवंत, ऐसा कहते हैं,' इस प्रकार बोलता है। उपदेश देते हुए कभी अज्ञान से या उपयोग शून्यता से उससे भी उत्सूत्र बोलने में आ जाए तो इस पाप की संभावना रहती है। इसलिए श्रावक को इस पाप का प्रतिक्रमण करना चाहिए। २९० इस गाथा से इतना अवश्य स्पष्ट होता है कि प्रतिक्रमण मात्र व्रतधारी श्रावक के लिए ही नहीं, परंतु भिन्न-भिन्न कक्षा के तमाम साधकों के लिए है। इस कारण से सर्वसंग के त्यागी साधु-साध्वीजी भगवंत, देशविरतिधर श्रावक-श्राविकाएँ, सम्यग्दर्शन को प्राप्त किए हुए मनुष्य या प्राथमिक स्तर के आराधकों को भी प्रतिक्रमण की यह क्रिया करनी चाहिए, क्योंकि हर एक के जीवन में इस गाथा में बताए हुए चारों में से कोई ना कोई दोष लगने की संभावना है। इन दोषों के कारण आत्मा पाप से मलिन होती है । उसकी परिणति बिगड़ती है एवं उन कारणों से आत्मा का भव भ्रमण बढ़ता है। ऐसा ना हो इसलिए इन चारों में से कोई भी दोषों से आत्मा मलिन हुई हो तो उसकी विशुद्धि के लिए प्रतिक्रमण अवश्य करना चाहिए और कदाचित् ये दोष ना भी हुए हों तो भी भविष्य में इन दोषों को उत्पन्न करे ऐसे आत्मा में पड़े हुए कुसंस्कारों की शुद्धि के लिए भी प्रतिक्रमण करना चाहिए । इस गाथा का उच्चारण करते हुए साधक सोचता है कि - 'मेरी दृष्टि को सूक्ष्म करके और मन को एकाग्र करके मुझे मेरी समग्र दिनचर्या तथा रात्रि चर्या का अवलोकन करना चाहिए। दिवस एवं रात्रि के दौरान उपरोक्त चारों में से किन-किन दोषों का सेवन हुआ है ? किन संयोगों में हुआ एवं किस प्रकार हुआ ? इन दोषों का सेवन बार-बार न हो, इसलिए मुझे उन दोषों के प्रति घृणा या तिरस्कार का भाव उत्पन्न करना चाहिए। इन दोषों के सेवन से आत्मा का अहित, तीव्र कर्मों का बन्ध एवं भव की परंपरा की वृद्धि का विचार करके, ऐसे दोषों से वापस लौटने का प्रयत्न करना चाहिए ।' अवतरणिका : संसार के समग्र व्यवहार हिंसा से चलते हैं और हिंसा से वैर भाव का प्रवाह चलता है। उससे स्व-पर की शांति भंग होती है। सबकी शांति का इच्छुक श्रावक

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