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अवतरणिका :
इस सूत्र का उपसंहार कर, अंतिम मंगल करते हु
बताते हैं -
गाथा :
एवमहं आलोइअ, निंदिअ गरहिअ दुगंछिअं सम्मं । तिविहेण पडिक्कतो, वंदामि जिणे चउव्वीसं ॥ ५० ॥
वंदित्तु सूत्र
अन्वय सहित संस्कृत छाया :
एवम् सम्यक् आलोच्य, निन्दित्वा गर्हित्वा जुगुप्सित्वा । त्रिविधेन प्रतिक्रान्तः अहम् चतुर्विंशतिम् जिनान् वन्दे ।। ५० ।।
गाथार्थ :
इस प्रकार (अतिचारों की) सम्यक् प्रकार से आलोचना, निन्दा, गर्हा एवं जुगुप्सा करके मन-वचन-काया से, प्रतिक्रमण करता हुआ, चौबीसों जिनेश्वरों को वंदन करता हूँ।
विशेषार्थ :
एवमहं आलोइअ - इस प्रकार = पहले बताए हुए तरीके से, सम्यक् प्रकार से आलोचना करके,
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( सम्यक् प्रकार से) गर्हा करके,
इस गाथा में संपूर्ण प्रतिक्रमण सूत्र का उपसंहार किया है। उसके द्वारा श्रावक
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बताता है - 'पूर्व सूत्र में बताई हुई विधि के अनुसार, क्रमादि ध्यान में रखते हुए और सम्यक् भावपूर्वक सही तरीके से आलोचना करके मैं चौबीस जिनेश्वरों को वंदन करता हूँ ।'
निंदिअ - ( सम्यक् प्रकार) निन्दा करके ।
'व्रत नियम या आचार विषयक जिन दोषों का मुझ से सेवन हुआ है, मैं स्वीकार करता हूँ कि वह मैंने गलत किया है । इस प्रकार का आंतरिक संवेदन निन्दा है। सूत्र में बताई विधि से निन्दा करके ... एवं
गरहिअ