Book Title: Sutra Samvedana Part 04
Author(s): Prashamitashreeji
Publisher: Sanmarg Prakashan

Previous | Next

Page 317
________________ २९४ अवतरणिका : इस सूत्र का उपसंहार कर, अंतिम मंगल करते हु बताते हैं - गाथा : एवमहं आलोइअ, निंदिअ गरहिअ दुगंछिअं सम्मं । तिविहेण पडिक्कतो, वंदामि जिणे चउव्वीसं ॥ ५० ॥ वंदित्तु सूत्र अन्वय सहित संस्कृत छाया : एवम् सम्यक् आलोच्य, निन्दित्वा गर्हित्वा जुगुप्सित्वा । त्रिविधेन प्रतिक्रान्तः अहम् चतुर्विंशतिम् जिनान् वन्दे ।। ५० ।। गाथार्थ : इस प्रकार (अतिचारों की) सम्यक् प्रकार से आलोचना, निन्दा, गर्हा एवं जुगुप्सा करके मन-वचन-काया से, प्रतिक्रमण करता हुआ, चौबीसों जिनेश्वरों को वंदन करता हूँ। विशेषार्थ : एवमहं आलोइअ - इस प्रकार = पहले बताए हुए तरीके से, सम्यक् प्रकार से आलोचना करके, - ( सम्यक् प्रकार से) गर्हा करके, इस गाथा में संपूर्ण प्रतिक्रमण सूत्र का उपसंहार किया है। उसके द्वारा श्रावक - बताता है - 'पूर्व सूत्र में बताई हुई विधि के अनुसार, क्रमादि ध्यान में रखते हुए और सम्यक् भावपूर्वक सही तरीके से आलोचना करके मैं चौबीस जिनेश्वरों को वंदन करता हूँ ।' निंदिअ - ( सम्यक् प्रकार) निन्दा करके । 'व्रत नियम या आचार विषयक जिन दोषों का मुझ से सेवन हुआ है, मैं स्वीकार करता हूँ कि वह मैंने गलत किया है । इस प्रकार का आंतरिक संवेदन निन्दा है। सूत्र में बताई विधि से निन्दा करके ... एवं गरहिअ

Loading...

Page Navigation
1 ... 315 316 317 318 319 320