Book Title: Sutra Samvedana Part 04
Author(s): Prashamitashreeji
Publisher: Sanmarg Prakashan

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Page 316
________________ धर्माराधना से उपसंहार गाथा-४९ २९३ स्नेही, स्वजन माना एवं मेरे लालन-पालन करने वाले को ही मेरा कुटुंब माना। मेरे स्वार्थ में जो बाधक बने उन्हें मैं अपना शत्रु मानता था। मेरी इच्छा के विरूद्ध कार्य करने वाले को मैं पराया मानता रहा। पराया मानकर उन सबके सुख-दुःख का मैंने कभी विचार भी नहीं किया, बल्कि मेरे या मेरे माने हुए स्नेही, स्वजनों या कुटुंबिओं के सुख के लिए मैंने अनेकों को बहुत दुःख दिया है, अनेक तरह से पीड़ा दी है। अब मैंने धर्म समझा है। अब मेरे में आत्मवत् सर्वभूतेषु की भावना जागृत हुई है। जगत के सब जीव मुझे मित्र समान दिखाई देते हैं, सबके हित की भावना मेरे हृदय में प्रकट हुई है। अब मेरे हृदय में सबके प्रति मैत्री भाव है, मुझे किसी के प्रति लेशमात्र भी वैरभाव नहीं, दिल में किसी के प्रति द्वेष, अप्रीति या अरूचि नहीं है।' इस गाथा द्वारा मैत्री भाव बताया गया है, मैत्री के कारण दुःखी जीवों को देखकर करूणा भाव प्रकट होता है, गुणवान आत्मा को देखकर प्रमोद होता है एवं अज्ञानी-अविवेकी जीवों के प्रति माध्यस्थ्य प्रकट होता है। मैत्री, प्रमोद, कारूण्य एवं माध्यस्थ्य : ये चार भाव साधना की नींव हैं, जिनका यहाँ आरंभ होता है। इस गाथा का उच्चारण करते हुए श्रावक सोचता है कि - 'मैंने एक एक जीव को क्षमा दी एवं प्रत्येक जीव से क्षमा मांगी, परंतु हे प्रभु ! अब ऐसी कृपा करो कि मेरा यह भाव मात्र शाब्दिक न रहे, अल्पकालीन न बने, निमित्तों की उपस्थिति में वह खत्म न हो जाए। आपके प्रभाव से मेरी चित्त भूमि ऐसी निर्मल बने, मेरा मन ऐसा सात्विक बने कि पुन: कभी भी वैर भाव या द्वेष भाव से मैला ही न हो। कोई भी निर्बल निमित्तों में किसी को मैं अपराधी या अन्यायी न मानूँ । प्रत्येक संयोग में मैं अपने आप को मित्रों से घिरा हुआ देखू, सब तरफ से मेरे लिए अच्छा ही हो रहा है ऐसा मानूँ और सबके उपकारों को सतत स्मरण में रखू। प्रभु ! मुझे ऐसी शक्ति दीजिए।' 1. सद्धर्मध्यानसंध्यान - हेतवः श्रीजिनेश्वरैः । __ मैत्रीप्रभृतयः प्रोक्ताश्चतस्रो भावना: परा: ॥१॥ - शान्तसुधारस १३वीं ढाल मैत्रीप्रमोदकारुण्य - माध्यस्थ्यानि नियोजयेत्। धर्मध्यानमुपस्कर्तुम् तद्धि तस्य रसायनम्॥२॥ - शान्तसुधारस १३वीं ढाल

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