Book Title: Sutra Samvedana Part 04
Author(s): Prashamitashreeji
Publisher: Sanmarg Prakashan

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Page 314
________________ धर्माराधना से उपसंहार गाथा-४९ २९१ इस सूत्र द्वारा अपने किए हुए सब पापों का प्रतिक्रमण करके अंत में सब जीवों के प्रति मैत्री भाव की एवं क्षमा भाव की वृद्धि के लिए प्रार्थना करते हुए कहता है कि, गाथा: खामेमि सव्वजीवे, सव्वे जीवा खमंतु मे। मित्ती मे सव्वभूएसु, वेरं मज्झ न केणइ ।।४९।। अन्वय सहित संस्कृत छाया : सर्वजीवान् क्षमयामि, सर्वे जीवा मे क्षाम्यन्तु। सर्वभूतेषु मे मैत्री, मम केनचित् वैरं न ।।४९।। गाथार्थ : सर्व जीवों को मैं क्षमा करता हूँ, सर्व जीव मुझे क्षमा करें, सब प्राणियों के प्रति मुझे मैत्री भाव है, मुझे किसी के साथ वैरभाव नहीं है । विशेषार्थ : खामेमि सव्वजीवे - सब जीवों को मैं क्षमा करता हूँ। संसार के सभी जीवों को मन मंदिर में स्थापित कर साधक प्रार्थना करता है कि 'हे बंधुओं ! मैं और तुम इस जगत में अनंतकाल से साथ रहते हैं । अनंतकाल से साथ रहते हुए बहुत बार जाने-अनजाने तुमसे मुझे पीड़ा हुई है, त्रास हुआ है, मरणांत उपसर्ग भी आया है। मैं समझता हूँ कि मुझे जो कोई पीड़ा वगैरह हुई उसमें मेरे कर्म भी उतने ही जिम्मेदार थे। तो भी मोह एवं अज्ञानता के कारण मैंने तुम्हें अपराधी माना। अधिकतर तुम्हारे प्रति शत्रुता का भाव रख कर वैर की गांठ बांधी। वास्तव में उसमें तुम्हारा कोई अपराध नहीं था। दोष तो मेरे कर्मों का ही था, परंतु यह बात आज मुझे समझ में आई है। इसीलिए आज से मैं तुम्हारे सर्व अपराधों को भूल जाता हूँ। तुम्हारे प्रति वैरभाव को मन से बाहर निकाल देता हूँ। वैर भाव के कारण तुम्हारे प्रति हुए संकल्प-विकल्प से मन को मुक्त करता हूँ। आज के बाद कभी ऐसा याद भी नहीं करूँगा कि तुमने मुझे दुःख दिया है, पीड़ा दी है, मरण तक पहुँचाया है। आज से तुम्हारे प्रति वैर भाव, शत्रु भाव को भूला कर तुम्हें मित्ररूप से स्वीकारता हूँ।

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