Book Title: Sutra Samvedana Part 04
Author(s): Prashamitashreeji
Publisher: Sanmarg Prakashan

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Page 312
________________ धर्माराधना से उपसंहार गाथा- ४८ कहाँ नहीं जाना चाहिए, हर किसी के साथ बैठना नहीं चाहिए । श्रद्धा को विचलित करे ऐसे व्यक्तियों का सम्पर्क नहीं करना चाहिए क्योंकि ऐसे व्यक्तियों के सम्पर्क से कभी जिन वचनों में अश्रद्धा प्रकट होती है और उससे कभी उत्सूत्र प्ररूपणा जैसे भयंकर पाप होने की भी संभावना बढ़ जाती है। इसके अलावा, एक साधक के हृदय में प्रकटी अश्रद्धा अनेकों की साधना को शिथिल करने में निमित्त बनती है। इसलिए इस दोष से बचने के लिए हर किसी से संबंध नहीं रखना चाहिए। २८९ ४. तहा विवरीअपरूवणाए अ 'उसका प्रतिक्रमण करना है ) । तथा जो भी विपरीत प्ररूपणा की हो भगवान श्री जिनेश्वर देव ने जिन जिन पदार्थों का, सिद्धांतों का, आचार मार्ग का, साधना मार्ग का, जिस विधि से निरूपण किया है यदि उससे विपरीत प्ररूपणा हुई हो तो उसका प्रतिक्रमण करना है। भगवान के वचन अनंत आत्माओं के लिए दुःख से मुक्त होने का आधार हैं । अनंत जीवों को तारने की शक्तिवाले भगवान के ऐसे उपकारी वचन में गड़बड़ करने से, उनके वचनों के भावों को बदल देने से, गलत जगह उनका प्रयोग करने से अनेक जीवों का अहित होता है। बहुत से जीव कल्याणकारी मार्ग से भ्रष्ट हो जाते हैं। इसलिए हिंसा, चोरी आदि सर्व पापों में उत्सूत्र प्ररूपणा अर्थात् भगवान के वचनों की विपरीत प्ररूपणा करना बड़े से बड़ा पाप है। इससे अधिक से अधिक महादुःखरूप अनंत संसार की वृद्धि होती है। इसलिए पूज्यपाद योगीराज श्री आनंदघनजी महाराज ने कहा है - - 'पाप नहीं कोई उत्सूत्र भाषण जिस्युं (जैसा), धर्म नहीं कोई जग सूत्र सरीखो (जैसा) । ' जिज्ञासा : श्रावक उपदेश ही नहीं देता तो उसे विपरीत प्ररूपणा का पाप लगने की संभावना कैसे हो सकती है ? पास तृप्ति: श्रावक उपदेश दे ही नहीं, ऐसा एकांत नहीं है। गीतार्थ गुरूभगवंत के जिसने सूत्र एवं अर्थ का ज्ञान प्राप्त किया हो, वैसे -योग्य श्रावकों को बहुश्रुत -‍ गुरू की कही हुई शिक्षा योग्य आत्मा को देने का अधिकार है, परंतु उपदेश देते

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