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वंदित्तु सूत्र
पाप का प्रतिक्रमण करना चाहिए, जैसे कि अनाचार नहीं करना, चोरी नहीं करनी इत्यादि जिनेश्वर की आज्ञा है। अगर किसी जैन ने ये प्रवृत्तियाँ नहीं करने का व्रत न भी लिया हो तो भी ये प्रवृत्तियाँ करने से उसे दोष लगता ही है। अत: जैन कुल में जन्मे हुए व्यक्तियों को व्रत न हो तो भी ऐसी प्रवृत्तियों का प्रतिक्रमण करना चाहिए। ऐसी प्रवृत्तियों से बचने के लिए कोई भी प्रवृत्ति करते समय साधक के मन में ये स्पष्टता होनी जरूरी है कि भगवान श्री जिनेश्वर देव ने यह प्रवृत्ति करने को मना तो नहीं किया है ? यदि भगवान श्री जिनेश्वर देव ने इस प्रवृत्ति का निषेध किया हो तो मुझे तो वह नहीं ही करनी है ये विचारधारा सतत रहे तो ही इस दोष से बच सकते हैं।
२. किच्चाणमकरणे अ पडिक्कमणं - करने योग्य कार्य न किया हो तो उसका प्रतिक्रमण करना है।
भगवान श्री जिनेश्वरदेव ने साधक को जिस कक्षा में जो कर्त्तव्य करने को कहा है, जैसे कि प्रभु पूजा, सद्गुरू की उपासना, बुजुर्गों का विनय, शक्ति अनुसार दानादि इत्यादि उनमें से कोई भी कर्त्तव्य छुटा हो या प्रमाद से न किया हो, तो उसका प्रतिक्रमण करना चाहिए। __कोई भी प्रवृत्ति करने के प्रसंग में अगर प्रमाद होता हो तो ऐसा सोचना चाहिए कि ‘भगवान श्री जिनेश्वर देव ने मेरी भूमिका में यह प्रवृत्ति करने को कहा है, इसलिए मुझे वह अवश्य करनी ही चाहिए, इसमें प्रमाद होना ही नहीं चाहिए। यदि प्रमादवश यह कर्त्तव्य न करूँ तो आज्ञा की विराधना का, उपेक्षा का मुझे पाप लगेगा।' ऐसा सोचकर जो जाग्रत रहता हो वह ही इन दोषों से बच सकता है। . ३. असद्दहणे अ - अश्रद्धा की हो तो (उसका प्रतिक्रमण करना है)।
भगवान श्री जिनेश्वर देव द्वारा निरूपित - कहे हुए - तत्त्वों के प्रति, उनके उपदेशित साधना मार्ग के प्रति, सम्यग् ज्ञान, सम्यग् दर्शन, सम्यक् चारित्र की साधना के प्रति अश्रद्धा हुई हो, जैसी श्रद्धा होनी चाहिए वैसी न हुई हो तो उसका भी प्रतिक्रमण करना है।
अंत:करण में प्रत्येक पल ये सजगता रहनी ही चाहिए कि परमात्मा के वचनों में कहीं शंका न हो जाए। परमात्मा के वचन में श्रद्धा को स्थिर रखने के लिए, जहाँ