Book Title: Sutra Samvedana Part 04
Author(s): Prashamitashreeji
Publisher: Sanmarg Prakashan

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Page 308
________________ धर्माराधना से उपसंहार गाथा- ४७ तृप्ति : बात सत्य है, 'धम्मो' पद से श्रुत एवं चारित्र दोनों धर्म ग्रहण कर सकते थे। ऐसा होते हुए भी ग्रंथकार ने दो शब्दों का प्रयोग किया है। क्योंकि वास्तव में मात्र श्रुत (शास्त्र ज्ञान ) अथवा मात्र क्रिया कल्याण नहीं कर सकती, परंतु श्रुत के साथ की गई क्रिया ही मोक्ष प्राप्त करा सकती है। इस बात को स्पष्ट करने के लिए ही ग्रन्थकारने दोनों पदों का प्रयोग किया होगा ऐसा लगता है । सम्मद्दिट्ठी देवा दिंतु समाहिं च बोहिं च - सम्यग्दृष्टि देव (मुझे) समाधि एवं बोधि दीजिए । २८५ 'हे सम्यग्दृष्टि देवों ! आप बोधि एवं कुछ अंश में समाधि से सम्पन्न हो और मेरी प्रार्थना सुनकर मेरी सहायता करने में सक्षम हो। इसलिए हाथ जोडकर नतमस्तक हो प्रार्थना करता हूँ कि आप मुझे निर्मल बोधि एवं समाधि दीजिए।' समाधि' का अर्थ है चित्त की स्वस्थता अर्थात् सभी अनुकूल भावों में राग, आसक्ति या रुचि एवं प्रतिकूल भावों में द्वेष, अनासक्ति या अरुचि का अभाव । अनुकूलता या प्रतिकूलता में मन एक जैसा रहे अर्थात् अच्छे या अनुकूल भावों में राग, आसक्ति या ममता के कारण मन में विह्वलता न हो एवं खराब या प्रतिकूल भावों में द्वेष, अनासक्ति या अरुचि के कारण मन में लेश मात्र भी व्यथा या पीड़ा न हो, परंतु सर्वस्थितियों में मन एक जैसे भाव में टिका रहे, यह समाधि है । समाधि ही सच्चे सुख का कारण है । उसके बिना कोई वास्तविक सुख नहीं पा सकता । सामान्य संयोगों में समाधि में रहनेवाला श्रावक भी विशेष प्रकार के संयोगों की उपस्थिति में स्वयं समाधि में नहीं रह पाता। इसलिए वह सम्यग्दृष्टि देवों को प्रार्थना करता है कि 'हे सम्यग्दृष्टि देवों ! आप समाधि में विघ्नकारक कारणों को दूर करके मुझे समाधि दीजिए। ' सम्यग्दृष्टि देवों के पास दूसरी प्रार्थना बोधि' के लिए की है। 'बोधि' सम्यग्दर्शन का पर्यायवाची शब्द है । जगत के सभी भाव जैसे हैं वैसे ही उन्हें स्वीकारना याने कि जो भाव आत्मा के लिए अहितकर - दुःखदायक है उसे अहितकर ही मानना - अर्थदीपिका 2. ‘समाधिं चित्तस्वास्थ्यम्' 3. 'बोधिं परलोके जिन - धर्म - प्राप्तिम्' अर्थदीपिका -

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