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धर्माराधना से उपसंहार गाथा-४४
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उर्ध्वलोक में - समभूतला पृथ्वी से ९०० योजन ऊपर के भाग को उर्ध्वलोक कहते हैं। मेरुपर्वत के ९०० योजन उपर सोमनसवन में, नंदनवन में, सहस्रकूट इत्यादि में जो चैत्य हैं तथा वैमानिक देवों के आवासों में जो जिनचैत्य है, वे उर्ध्वलोक के चैत्य कहलाते हैं।
अधोलोक में - समभूतला पृथ्वी से ९०० योजन नीचे के भाग को अधोलोक कहते हैं। अधोलोक में, भवनपति देवों के आवासों में तथा महाविदेह क्षेत्र के अधोग्रामो में जो जिन चैत्य हैं, उन्हें अधोलोक के चैत्य कहते हैं।
ति लोक में - उर्ध्वलोक एवं अधोलोक के बीच में स्थित भाग को ति लोक कहते हैं। इस लोक में जो द्वीप, समुद्र, पर्वत, सरोवर, नदियाँ, वृक्ष, वन, कुंड आदि हैं, वहाँ जितने भी जिन चैत्य हैं, उन्हें ति लोक के चैत्य कहते हैं।
सव्वाइं ताइं वंदे, इह संतो तत्थ संताई - यहाँ रहा हुआ मैं वहाँ स्थित सभी चैत्यों को वंदन करता हूँ।
श्रावक को जगत के सर्व चैत्यों की वंदना करने की इच्छा होने पर भी उसमें इतनी शक्ति नहीं होती कि उन-उन स्थानों पर जाकर अपनी काया से वंदना कर सके, इसलिए वह तीनों लोक में रहे हुए सर्व चैत्यों को स्मृति में लाकर सोचता है कि,
'ये चैत्य ही मेरे भव निस्तार के कारण हैं, मुझमें शुभ भाव पैदा करवाने में प्रबल निमित्त हैं । इन चैत्यों के दर्शन द्वारा ही मैं मेरी आत्मा का दर्शन कर, मेरी आत्मा के हित के लिए कुछ कर सकता हूँ। इसलिए परमात्मा की अनुपस्थिति में परम उपकारी इन चैत्यों को, यहां रहते हुए भी मैं वंदन कर, मेरी आत्मा को कृतार्थ करता हूँ।' चित्त शुद्धि बिना सुख मिलता नहीं और शुद्ध चैतन्य से युक्त प्रभु के आलंबन बिना चित्त शुद्धि पानी बहुत मुश्किल है । अतः मुझे सर्व जिन बिंबो को नमस्कार करके चित्तशुद्धि पानी है । हे प्रभु ! आपने तो अल्प समय में अपना सुविशुद्ध स्वरूप प्रकट कर लिया था। आप तो अनंत काल तक इस सुख
और आनंद में लीन रहनेवाले हो । मुझे भी आप जैसा आनन्द पाना है इसलिए मैं प्रार्थना करता हूँ के आप मेरी चित्तशुद्धि का कारण बनकर मेरा संपूर्ण शुद्ध स्वरूप प्रकट करो।