Book Title: Sutra Samvedana Part 04
Author(s): Prashamitashreeji
Publisher: Sanmarg Prakashan

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Page 297
________________ वंदित्तु सूत्र मस्तक पश्चात्ताप करके आलोचना द्वारा आत्मशुद्धि करने का उभयकारी संयोग मुझे प्राप्त हुआ, उन अनंतगुण संपन्न देवाधिदेव के चरणों को मैं दोनों हाथ जोड़कर, झुकाकर वंदन करता हूँ तथा उनके जैसे शुद्ध स्वरूप की प्राप्ति करने का प्रयत्न करता हूँ ।' २७४ इस प्रकार से आराधना की शुरुआत करने से पहले चौबीस जिनों की वंदना करके यहाँ मध्यम मंगलाचरण भी किया है। अवतरणिका : पूर्व की गाथा में भाव जिन को वंदन करने के बाद, अब सम्यक्त्व की शुद्धि के लिए तीनों लोक में रहे हुए सर्व चैत्यों को ( मंदिरों को), शाश्वत - अशाश्वत स्थापना जिनों को (प्रतिमाओं को) वंदन करते हुए कहते हैं - गाथा : जावंति चेइआई, उड्डे अ अ अ तिरिअलोए अ । सव्वाइं ताइं वंदे, इह संतो तत्थ संताई ॥ ४४ ॥ अन्वय सहित संस्कृत छाया : उर्ध्वे चाधश्च तिर्यग्लोके च यावन्ति चैत्यानि । तत्र सन्ति तानि सर्वाणि इह सन् वंदे ||४४ ॥ गाथार्थ : ऊर्ध्व लोक, अधोलोक तथा तिछे लोक में जो कोई चैत्य हैं अर्थात् जिन मंदिर या जिन प्रतिमा हैं उन सबको यहां रहते हुए मैं वंदन करता हूँ । विशेषार्थ : जावंति चेइआइं, उड्ढे अ अहे अ तिरिअलोए अ - उर्ध्वलोक में, अधोलोक में एवं तिर्च्छलोक में जितने भी चैत्य' हैं। I 1. चैत्यं जिनौकस्तबिंबं चैत्यं जिनसभातरुः । चैत्य शब्द का अर्थ जिन मंदिर, जिन प्रतिमा एवं जिनराज की सभा का चौतरायुक्त वृक्ष होता है।

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