Book Title: Sutra Samvedana Part 04
Author(s): Prashamitashreeji
Publisher: Sanmarg Prakashan

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Page 295
________________ २७२ वंदित्तु सूत्र विशेषार्थ : में प्रतिक्रमण की क्रिया में यहाँ तक, वंदित्तु सूत्र गोदोहिका आसन में बैठकर बोला जाता है। यह मुद्रा लक्ष्य का वेध करने के लिए सज्ज हुए सैनिक के जैसी है । जिस प्रकार युद्ध में सैनिक इस मुद्रा में धनुष के ऊपर बाण चढ़ाकर शत्रु के ऊपर प्रहार करता है, वैसे ही मोह के साथ संग्राम करने की इच्छावाला श्रावक, इस मुद्रा में बैठकर, गणधरभगवंत के बनाए हुए इस सूत्र रूप धनुष को हाथ लेकर, उसके प्रत्येक पद के भाव रूप बाण को धनुष के साथ जोड़कर, मोह के एक एक सैनिक पर प्रहार करता है । इस तरह अंतरंग शत्रुओं को खोखला करके आत्मा को निर्मल करने स्वरूप आंशिक विजय को प्राप्त करता हुआ श्रावक अब विशेष आराधना के लिए अपनी तत्परता बताते हुए खड़ा होकर 'अब्भुडिओमि' के बाद आनेवाले पदों का उच्चारण करता है। तस्स धम्मस्स केवलि पन्नत्तस्स अब्भुट्टिओ मि आराहणाए - केवली भगवंत के बताए हुए धर्म की आराधना के लिए मैं खड़ा हुआ हूँ। धर्म के मूल प्ररूपक सर्वज्ञ एवं सर्वदर्शी अरिहंत परमात्मा हैं। उन्होंने साधुधर्म एवं श्रावक धर्म ऐसे दो प्रकार के धर्म बताए हैं। उसमें सम्यक्त्व मूलक बारह व्रतों का गुरूभगवंत के समक्ष स्वीकार करना श्रावक धर्म है | श्रावक धर्म को स्वीकार करने के बाद उसको सूक्ष्मता से पालने की हर श्रावक की इच्छा होती है, तो भी मोहाधीनता से व्रतों में मलिनता आने की संभावना रहती है। व्रत में आई मलिनता को प्रतिक्रमण द्वारा दूर करके शुद्ध हुआ श्रावक सोचता है कि 'केवली भगवंतों ने बताया हुआ और मैंने स्वीकारा हुआ धर्म करने के लिए मैं खड़ा हुआ हूँ, अर्थात् उसका निरतिचार पालन करने के लिए मैं तैयार हुआ हूँ । अब पुनः इन व्रतों में कोई दूषण न लग जाए इसलिए प्रमाद का त्याग करके अत्यन्त सावधान बना हूँ ।' विरओ मि विराहणाए तिविहेण पडिक्कंतो, वंदामि जिणे चउव्वीसंविराधना से मैंने विराम पाया है । मन, वचन, काया द्वारा पाप से निवृत्त होता हुआ मैं (मंगल हेतु) चौबीस जिनों को वंदन करता हूँ ।

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