Book Title: Sutra Samvedana Part 04
Author(s): Prashamitashreeji
Publisher: Sanmarg Prakashan

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Page 286
________________ सम्यग्दृष्टि का प्रतिक्रमण गाथा- ४०-४१ जो श्रावक भावपूर्वक प्रतिक्रमण करता है, सूत्र की एक-एक गाथा बोलकर अपने पापों को याद करता हुआ, गुरु भगवंत समक्ष आलोचना एवं निन्दा करता है, उस श्रावक को यह गाथा बोलते हुए जरूर ऐसा अनुभव होता है - 'हाश ! भगवान ! मेरे कर्म का भार कम हुआ, मेरे पाप का अनुबंध टूटा एवं मेरे कुसंस्कार कम हुए।' और उससे वह आनंद का भी अनुभव करता है। जिज्ञासा : क्या प्रतिक्रमण की क्रिया करने वाला प्रत्येक श्रावक इस तरीके से से हलका हो सकता है ? पाप तृप्ति : जिन श्रावकों को पाप का भार लगता है, जिनको पाप की चिंता है, वैसे श्रावक यथायोग्य रीति से आलोचना, निन्दा करते हैं, इसलिए वे इस क्रिया से जरूर हलकापन अनुभव करते हैं, परंतु जिन्हें पाप भाररूप नहीं लगता, जिन्हें पाप की कोई चिंता भी नहीं, फिर भी सामान्य रूप से 'प्रतिक्रमण करना ठीक है । सब करते हैं, इसलिए करना चाहिए।' ऐसा समझकर प्रतिक्रमण करते हैं, परंतु प्रतिक्रमण करते हुए जिस प्रकार पाप की आलोचना या निन्दा आदि करनी चाहिए उस प्रकार नहीं करते तो वे पाप से हलके नहीं होते । २६३ अवतरणिका : दृष्टांत सहित आलोचना की महिमा समझाकर अब प्रतिक्रमण रूप आवश्यक की महिमा दर्शाते हुए कहते है गाथा : आवस्सएण एएण, सावओ जइ वि बहुरओ होइ । दुक्खाणमंतकिरिअं, काही अचिरेण कालेण ।। ४१॥ अन्वय सहित संस्कृत छाया : श्रावकः यद्यपि बहुरजः भवति, (तदपि ) एतेन आवश्यकेन । अचिरेण कालेन, दुःखानाम् अन्तक्रियां करिष्यति ॥ ४१ ॥ गाथार्थ : यद्यपि श्रावक बहुत पापरज से युक्त होता है, तो भी आवश्यकरूप प्रतिक्रमण द्वारा वह अल्प काल में ही दुःखों का अंत कर देता है (भव दुःख से मुक्त होकर, मोक्ष सुख प्राप्त करता है)

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