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वंदित्तु सूत्र
विशेषार्थ :
आवस्सएण एएण - इस (प्रतिक्रमण रूप भाव) आवश्यक' द्वारा। साधु और श्रावक को जो क्रिया अवश्य करने योग्य है, उसे आवश्यक कहते है अथवा जिस क्रिया द्वारा ज्ञानादि गुण अवश्य प्रगट होते हैं, वह आवश्यक है।
यह आवश्यक छः प्रकार के होते हैं - १. सामायिक, २. चउविसत्थो, ३. वंदन, ४. प्रतिक्रमण, ५. कायोत्सर्ग एवं ६. पच्चक्खाण। ___ उसमें, सब सावध प्रवृत्तियों का त्याग कर समताभाव में स्थिर रहने के प्रयत्न को सामायिक, अनंत गुणों के भंडार चौबीस तीर्थंकरों के नामपूर्वक स्तवन को चउविसत्थो, गुणवान गुरूभगवंतों के प्रति आदर व्यक्त करनेवाली क्रिया को वंदन, पाप से पीछे हटकर निष्पाप भाव में स्थिर रहने की क्रिया को प्रतिक्रमण, मन-वचन-काया के अशुभ व्यापार के त्याग को कार्योत्सर्ग तथा पौद्गलिक भावों का त्याग करने हेतु जो नियम लिए जाते हैं, उन्हें पच्चक्खाण कहते हैं।
इन छ: प्रकार के आवश्यकों में सुश्रावकों को सतत प्रयत्न करना चाहिए। १. ममता के बंधन तोड़ने के लिए जब भी समय एवं अनुकूल संयोग मिले तब सर्व सावद्य प्रवृत्तियों का त्याग कर, सामायिक व्रत को स्वीकार करके, समता के भावों में रहने का प्रयास करना चाहिए । २. सामायिक जैसे सुन्दर अनुष्ठानों को बताकर अनंत जीवों पर अनंत उपकार करने वाले अरिहंत भगवंतों का सतत स्मरण करना चाहिए। ३. गुणवान गुरू भगवंतों के गुणों को स्मरण में लाकर पुन: पुन: उनको 1. अवश्य करने योग्य, वह आवश्यक'- अवश्यं कम्मं आवश्यकम्। उसके लिए श्री विशेषावश्यक
भाष्य में कहा है समणेण सावएण य, अवस्स-कायव्वं हवइ जम्हा। अंतो अहो-निसिस्स उ, तम्हा आवस्सयं नाम ।।८७३ ।। साधु एवं श्रावक के लिए रात्रि और दिवस के अंत में अवश्य करने योग्य है, इस कारण से यह 'आवश्यक' कहलाता हे। जमवस्सं करणिनं, तेणावस्सयमिदं गुणाणं वा। आवस्सयमाहारो, आ मजाया-ऽभिविहिवाई ।।८७४ ।। अवस्सं वा जीवं करेई जं नाण-दसण-गुणाणं। सनेज्झ-भावण-च्छायणेहिं वाऽऽवासयं गुणओ।।८७५।।