Book Title: Sutra Samvedana Part 04
Author(s): Prashamitashreeji
Publisher: Sanmarg Prakashan

Previous | Next

Page 292
________________ सम्यग्दृष्टि का प्रतिक्रमण गाथा-४२ २६९ आवश्यकता नहीं है , परंतु प्रयत्नपूर्वक प्रतिक्रमण करूँगा तो मेरे पाप करने के सर्व संस्कार नाश हो जाएंगे। लेकिन वह भी तब ही संभव बनेगा जब मैं भाव से श्रावक बनकर भावपूर्वक प्रतिक्रमण करूँगा । इन दोनों के लिए मुझे देव-गुरू की कृपा प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए जिससे आखिर में मैं भी संपूर्ण शुद्ध बन सकूँ।' अवतरणिका: प्रतिक्रमण की महिमा बताने के बाद अब प्रतिक्रमण करते समय जो अतिचार स्मृति में नहीं आए हैं, उनकी निन्दा, गर्दा करते हुए बताते हैं। गाथा: आलोअणा बहुविहा, न य संभरिआ पडिक्कमण-काले। मूलगुण-उत्तरगुणे, तं निंदे तं च गरिहामि।।४२ ।। अन्वय सहित संस्कृत छाया: मूलगुणे-उत्तरगुणे, आलोचना बहुविधा। प्रतिक्रमण-काले न संस्मृता, तां निन्दामि तां च गर्हे ।।४२ ।। गाथार्थ : पाँच मूल गुण एवं सात उत्तरगुणों के (१२ व्रतों के) विषय में आलोचना अनेक प्रकार की होती है । (इसलिए) प्रतिक्रमण के समय (उपयोग होते हुए भी) जो आलोचना स्मृति में न आई हो, उनकी मैं निन्दा एवं गर्दा करता हूँ। विशेषार्थ : मूलगुण-उत्तरगुणे आलोअणा बहुविहा - मूलगुण एवं उत्तरगुण के विषय में बहुत प्रकार की आलोचना' होती है। 1. 'आलोचना' शब्द का सामान्य अर्थ गुरु समक्ष स्वदोष का प्रकाशन' होता है, परंतु यहाँ 'आलोचना' शब्द का अर्थ कारण में कार्य का उपचार करके अतिचार' किया है। अतिचार कारण है, आलोचना कार्य है, तो भी कार्यरूप आलोचना में कारण रूप अतिचार का उपचार कर, उसे यहाँ ‘आलोचना' शब्द से सूचित किया है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320