________________
२६८
वंदित्तु सूत्र
४. प्रतिक्रमण : व्रत-नियम की मर्यादा का उल्लंघन करने से जिन पाप कर्मों का बंध हुआ हो, वे पाप कर्म प्रतिक्रमण की क्रिया से नाश हो जाते हैं। इस क्रिया के प्रत्येक सूत्र का उच्चारण उसके अर्थ की विचारणापूर्वक करने में आए तो उस समय हृदय में ऐसे भाव प्रकट होते हैं कि जिससे दिन में किये गए पापों की स्मृति होती है, उन पापों के प्रति तिरस्कार का भाव पैदा होता है और इस तिरस्कार भाव या निन्दा, गर्हा से ही उन पापों का समूल नाश होता है।
५. कायोत्सर्ग : जब मन-वचन-काया अशुभ स्थान में प्रवृत्त होते हैं तब आत्मा कुसंस्कार एवं कर्मबन्ध की भागी बनती है। कायोत्सर्ग मन-वचन-काया को शुभ स्थान में स्थिर करने की एक प्रक्रिया है। उससे कर्म का आश्रव नहीं होता
और आत्मा संवर भाव में स्थिर होती है। इस तरह शुभ स्थान में मन की एकाग्रता होने से पूर्वसंचित कर्मों की निर्जरा होती है, जिससे आत्मा के ज्ञानादि गुणों की वृद्धि होती है, वीर्यधारा की शुद्धि होती है और आत्मा समाधि द्वारा सिद्ध गति की ओर प्रयाण करती है। ६. पच्चक्खाण' : निरंकश इच्छाओं के कारण जीव अपने मन को स्वस्थ और स्थिर नहीं रख सकता जिससे वह कर्मबन्ध करके भविष्य में दुःखी होता है ओर वर्तमान में भी दु:खी होता है। पाप नहीं करने का संकल्प करने से मन की अस्वस्थता में काफी सुधार हो जाता है क्योंकि इस संकल्प से इच्छाएँ स्वत: अंकुश में आ जाती हैं। इस तरह संकल्प अर्थात् पच्चक्खाण मन की स्वस्थता का कारण बनकर वर्तमान में भी आत्मा को सुखी करता है और भविष्य में पाप प्रवृत्ति और कर्मबंध को रोककर सुख प्राप्त करवाता है।
इस रीति से छ: आवश्यक की क्रिया से श्रावक विविध प्रकार से बहुत से पाप कर्मों का नाश कर सकता है। इस गाथा का उच्चारण करते हुए श्रावक सोचता है कि
'जैन शासन की कैसी बलिहारी है ! भगवान की बताई हुई इस एक क्रिया में कैसी शक्ति है ! भले ही मुझसे बहुत पाप हो गये हैं, तो भी हताश होने की 1. इसके अतिरिक्त छः आवश्यक विषय की समझ के लिए इस पुस्तक की भूमिका देखें।