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वंदित्तु सूत्र
एक छोटी-सी क्रिया मात्र भावपूर्वक की तो उन्होंने सर्वघाती कर्मों का नाश कर तुरंत ही केवल ज्ञान प्राप्त किया।
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इसलिए 'प्रतिक्रमण की इतनी छोटी क्रिया से इतने ज्यादा पापकर्मों का क्षय कैसे होगा ?' - ऐसा विचार छोड़कर, इस क्रिया को किस तरह से सम्पूर्णतया भगवान की आज्ञानुसारी एवं भावमयी बनाऊँ, वैसा विचार शुरू कर देना चाहिए । यदि क्रिया भावमय बनेगी तो अवश्य ही सर्व पापों का नाश करेगी। इन दोनों गाथाओं का उच्चारण करते हुए श्रावक सोचता है कि 'मंत्र- मूल के जानकार सुवैद्य शरीर में फैले हुए जहर को जैसे खत्म कर सकते हैं, वैसे ही सुश्रावक आलोचना एवं निन्दा द्वारा आठ प्रकार के कर्मों का नाश कर सकता है; परंतु मुझमें अभी तक सुश्रावकपना प्रकट नहीं हुआ है जिसके कारण यद्यपि मैं आलोचना, निन्दा करता हूँ, तो भी मेरे पापकर्मों का नाश नहीं होता। प्रभु ! आपकी कृपा के बिना योग्यता भी प्रकट नहीं होती एवं जितना चाहिए उतना प्रयत्न भी नहीं होता । प्रभु ! आपके चरणों में मस्तक झुकाकर प्रार्थना करता हूँ कि आप मुझमें सुश्रावकपना प्रकटाओ और कर्म के बंधन से मुक्त करो'। अवतरणिका :
इस गाथा में आलोचना एवं निन्दा द्वारा जिसने कर्मनाश किया है, ऐसे श्रावक की मानसिक परिस्थिति का परिचय उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया गया है।
गाथा :
कयपावो वि मणुस्सो, आलोइअ निंदिअ गुरु-सगासे । होइ अइरेग लहुओ ओहरिअ - भरु व्व भारवहो ।। ४० ।।
अन्वय सहित संस्कृत छाया :
कृतपापोऽपि मनुष्यो गुरु-सकाशे आलोच्य निन्दित्वा । अपहृतभारो भारवह इव अतिरेक - लघुको भवति ।। ४० ।।
गाथार्थ :
उतारे
पापी मनुष्य, गुरू के समक्ष आलोचना एवं निन्दा करके, भार की तरह, पाप के भार से अत्यंत हल्का हो जाता है।
हुए मजदूर