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वंदित्तु सूत्र
से जल्दी कर्मनाश कर सके ऐसा नहीं होता, परंतु शास्त्रों में निर्देशित विशिष्ट गुणोंवाला सुश्रावक (भाव श्रावक) प्रतिक्रमण की क्रिया द्वारा आलोचना एवं निन्दा करता हुआ अवश्य कर्म नाश कर सकता है। हाँ ! इसके अलावा भी जो श्रावक श्रद्धापूर्वक प्रतिक्रमण करता है, उसका प्रतिक्रमण निष्फल नहीं जाता, परंतु फर्क इतना है कि वह धीमी गति से कर्मनाश का कारण बनता है। अत: गाथा में सुशिक्षित शब्द की तरह सावओ शब्द का प्रयोग ना करते हुए 'सुसावओ' शब्द का प्रयोग किया है। जिज्ञासा : सुश्रावक किसे कहा जाता है ?
तृप्ति- धर्मरत्न प्रकरण में पू. हरिभद्रसूरि म. सा. बताते हैं कि धर्मरत्न की प्राप्ति के लिए आवश्यक ऐसे (३५० गाथा के स्तवन में बताये गए) इक्कीस गुणों से जो सुशोभित हो उसे भाव श्रावक कहते हैं। यहाँ ऐसे भावश्रावक को ही सुश्रावक कहा है । शास्त्र में ऐसे भावश्रावक के क्रिया विषयक छ: लिंग इस प्रकार के बताएँ हैं : १. कृतव्रत कर्मा:
जिसने व्रत संबंधी कार्य किए हो वह कृतव्रतकर्मा' है। ‘कृतव्रतकर्मा' गुणवाला श्रावक निम्नांकित गुणों से संपन्न होता है ।। १. आकर्णन - विनय-बहुमानपूर्वक (श्रावकादि के) व्रतों को (गीतार्थ गुरु
से) श्रवण करता हो। २. ज्ञान - व्रतों के प्रकार, भंग स्थान, अतिचार आदि का सम्यग् ज्ञान प्राप्त
किया हो । ३. ग्रहण - गुरू से अल्पकालीन या जीवन पर्यन्त व्रतों का स्वीकार किया
हो।
४. प्रतिसेवन - व्रतों का सम्यक् प्रकार से पालन करता हो।
2. 'कय-वयकम्मो तह सीलवं च गुणवं च उज्जुववहारी। गुरु-सुस्सूओ पवयण-कुसलो खलु भावओ सड्ढो ।।३३।।
- प.पू. हरिभद्रसूरीश्वरजीकृतधर्मरत्नप्रकरण