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सम्यग्दृष्टि का प्रतिक्रमण गाथा-३९
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है कि उसने किन कारणों से और किस रीति से दोषों का सेवन किया ? खुद के कौन से कुसंस्कार, आसक्ति, कषाय, विषय, प्रमाद, आर्त्त-रौद्र ध्यान के भावों के कारण भूल हुई ? जिन दोषों का सेवन हुआ है वह संयोगवश हुए है या आसक्तिवश ? जान-बूझकर किए या अकस्मात हुए? परवशता से हुए या स्वार्थवश हुए ? स्वरुचि से हुए या पर के आग्रह से उनका सेवन करना पड़ा ? दोषों के सेवन करते समय राग-द्वेष की अधीनता किस प्रकार की थी ? उसके कारण कौन-से जीवों का वध हुआ ? कितनों को पीड़ा हुई? झूठ, चोरी वगैरह का कितना आश्रय लिया ? किसके सुख की उपेक्षा हुई ? मुझ से किसका अहित हुआ? किसके हित की चिन्ता करनी बाकी रह गई ? आदि बातों पर सम्यग् प्रकार से और गहराई से विचार करता है। खुद के दोषों को खोजने के लिए की जाती ऐसी विचारधारा को शास्त्रीय भाषा में आलोचना कहते हैं।
आलोचना करने के बाद श्रावक, पाप करते समय जितने प्रमाण में रागादि अशुभ भाव प्रकट हुए हों उतने अथवा उससे अधिक मात्रा में पश्चात्ताप रूप शुभ भाव प्रकट करता है। शुभ भाव को प्रकट करने के लिए श्रावक सोचता है कि - _ 'मोह और ममता के अधीन होकर जो मैंने किया वो गलत किया। भगवान के ऐसे उत्तम शासन को पाकर भी मैं प्रमाद के कारण हार गया हूँ। सद्गुरूओं के वचनामृत का पान करते हुए भी मैं प्रमाद के कारण थक चुका हूँ। मैं पापी हूँ, मैं अधम हूँ, मैं कायर हूँ। मैं निकम्मा (नालायक) हूँ, जिस कारण भिन्न-भिन्न निमित्तों से मैं या तो राग से रंग जाता हूँ या तो आवेश में आ जाता हूँ या अनुचित प्रवृति कर बैठता हूँ। सही में मेरी इस वृत्ति एवं प्रवृत्ति को धिक्कार है। इस प्रकार अपने पाप की निन्दा (पश्चात्ताप) करते हुए सुश्रावक किए हुए पाप का तत्क्षण हनन (नाश) कर डालता है।'
जिज्ञासा : यहां 'सावओ' शब्द का प्रयोग न करके 'सुसावओ' शब्द का प्रयोग क्यों किया ?
तृप्ति : प्रत्येक वैद्य जिस प्रकार हर रोग का नाश नहीं कर सकता और हर एक गारूडिक जहर नहीं उतार सकता, परंतु मंत्र और औषध में विशारद सुवैद्य ही रोग और जहर का नाश कर सकता है। उसी प्रकार प्रत्येक श्रावक प्रतिक्रमण की क्रिया