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संलेखना व्रत गाथा-३३
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किसी भी प्रकार का धर्म निराशंस भाव से करना है। निराशंस भाव से किया हुआ धर्म ही मोक्षफल देता है। आशंसापूर्वक किया हुआ धर्म कभी भौतिक सुख दे, तो भी उससे आत्महित नहीं होता। धर्म का फल मोक्ष है। चिंतामणि के बदले में कोई भी प्रज्ञावान मनुष्य बैर जैसे तुच्छ फल को नहीं खरीदता, उसी प्रकार मोक्षफल को छोड़कर कोई भी विद्वान भौतिक सुख की इच्छा नहीं रखता।
पंचविहो अइआरो, मा मज्झ हुज्ज मरणंते - हे प्रभो ! ये पाँच अतिचार मुझे मरणांत भी न हों।
इसके पहले बारह व्रत संबंधी जो अतिचार बताए, वे व्रत को स्वीकारने के बाद उनमें हुई मलिनतारूप थे। यहाँ जो अतिचार बताए हैं, वे इस व्रत को लेने के पहले सुविशुद्ध व्रतपालन की पूर्व तैयारी के लिए हैं । संलेखना व्रत और अंतिम समय में समाधिभाव टिकाना ये दोनों बहुत ही दुष्कर कार्य हैं। प्रयत्न करके इनमें टिक गए तो भी जब विशिष्ट मान-सम्मान की प्राप्ति होती है, तब मन को स्थिर रखना अति मुश्किल होता है और अगर अनशन या संलेखना का स्वीकार करने के बाद जब कष्ट बढ़ जावे तो उस कष्ट से कायर बनकर कैसी-कैसी कामनाएँ हो सकती हैं, वह तो कहा भी नहीं जा सकता। अत: इन सब भावों से बचने के लिए रोज प्रतिक्रमण करता हुआ श्रावक अपना पंडित मरण हो, अंत समय कोई हीनभाव परेशान न कर पाए एवं इस व्रत का विशुद्ध पालन हो, वैसी भावना रखकर व्रत संबंधी संभवित अतिचारों को याद करके उसके प्रति जुगुप्सा भाव प्रकटाने का यत्न करता है।
इस गाथा का उच्चारण करता हुआ श्रावक प्रभु के सामने प्रार्थना करता है कि - 'हे भगवंत ! मैं अभी तो इस शरीरादि के ममत्व को त्याग कर यह व्रत ले सकूँ ऐसा नहीं, तो भी हे विभु ! मरण समय नजदीक आने पर जब इस शरीरादि की ममता का त्याग कर के मैं अनशन व्रत लूँ, तब कोई ऐसी अयोग्य आशंसाएँ मेरे व्रत को मलिन न करें। मान-सम्मान की कोई इच्छा मेरे मन को विह्वल न करे, काम भोग की कोई भावना मेरी मृत्यु को न बिगाड़े, ऐसा ख्याल रखना एवं हे प्रभु ! मेरी मृत्यु को सुधारने और अंत समय समाधि ज्वलंत रखने का सत्त्व 'मुझे जरूर देना।'