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सम्यग्दृष्टि का प्रतिक्रमण
अवतरणिका :
इस प्रकार व्रत विषयक सामान्य एवं विशेष अतिचारों की आलोचना, निन्दा, गर्हा एवं प्रतिक्रमण तो श्रावक करता है, परंतु उसके लिए प्रतिक्रमण की यह क्रिया 'हस्तिस्नान' जैसी है। हाथी जिस प्रकार एक तरफ स्नान से शुद्ध होता है एवं दूसरी तरफ कीचड़ से मैला हो जाता है, उसी प्रकार श्रावक एक तरफ प्रतिक्रमण द्वारा आत्मा को शुद्ध करता है और पुन: सांसारिक व्यवहार आदि से पाप करके आत्मा को मलिन करता है, तो इस प्रकार प्रतिक्रमण करने से क्या फायदा ? ऐसी शंका का समाधान करते हुए बताते हैं:
गाथा :
सम्मद्दिट्ठी जीवो, जइ वि हु पावं समायरइ किंचि । अप्पो सि होइ बंधो, जेण न निद्वंधसं कुणइ || ३६॥
अन्वय सहित संस्कृत छाया :
सम्यग्दृष्टिः जीवो यद्यपि खलु किञ्चित् पापं समाचरति । येन निद्वंधसं (निदर्यं ) न कुरुते तस्य बन्धो अल्पो भवति ।। ३६ ।। गाथार्थ :
सम्यग्दृष्टि जीव यद्यपि किंचित् = थोड़ा पाप का आचरण करता है, परंतु उसका भाव निर्ध्वंस = निर्दयी नहीं होता, इसलिए उसको कर्म बंध अल्प होता है।