________________
सामान्य से सर्व पापों का प्रतिक्रमण गाथा-३५
२४५
दंडेसु - मन, वचन, काया रूप तीन दंड के विषय में।
जीव को महापुण्य के उदय से मन, वचन एवं काया की शक्ति प्राप्त होती है, प्राप्त हुई इस शक्ति का सदुपयोग करने से आत्मा महासुख को प्राप्त करती है एवं प्राप्त हुई इस शक्ति का दुरूपयोग करने से आत्मा को नरकादि का महादुःख भुगतना पड़ता है। इसलिए नरकादि के दुःखों को प्राप्त करवाने वाले इन मन, वचन, काया के योगों को मनदंड, वचनदंड एवं कायदंड कहते हैं। प्राप्त हुई ये तीनों शक्तियाँ दंडरूप न बनें इसलिए श्रावक को सतत सावधान रहना चाहिए और मन-वचन-काया की शक्तियों को देव-गुरु एवं धर्म रूप तत्त्वत्रयी के साथ एवं दर्शन-ज्ञान एवं चारित्र रूप रत्नत्रयी के साथ जोड़ने का यत्न करना चाहिए। उनकी भक्ति, उनके ध्यान, उनके ही गुणगान एवं उनकी ही उपासना करने में तीनों योगों को उद्यमशील रखना चाहिए। इस तरह से तीनों योगों को सफल करना चाहिए। उसके बदले विषय कषाय के अधीन बनकर इन तीनों योगों को आत्मा का अहित हो ऐसे हिंसादि मार्ग पर उनका प्रवर्तन करना दोष है। इस पद द्वारा उसकी निन्दा करनी है।
गुत्तिसु अ समिईसु अ - तीन गुप्ति एवं पाँच समितियों के विषय में। मन-वचन-काया को आत्मभाव में स्थित रखना अर्थात् उन्हें और कहीं भी प्रवृत्त न होने देना वही मन-वचन-काया की गुप्ति कही जाती है और मन-वचनकाया की सम्यग् प्रवृत्ति को समिति कहा जाता है । गुप्ति मे निवृत्ति का प्राधान्य होता है तो समिति में सम्यग् प्रवृत्ति का प्राधान्य होता है। कर्म का आश्रव रोककर संवरभाव प्रगट करने में समिति और गुप्ति अति महत्व की भूमिका अदा करते हैं। इसलिए श्रावक को उनके ऊपर अत्यधिक आदर होना चाहिए और सामायिकादि करते समय अवश्य समिति-गुप्ति का पालन करना चाहिए, परंतु प्रमाद आदि दोषों के कारण उनका पालन न हुआ हो तो वह दोष है, जिसका प्रतिक्रमण इस पद द्वारा करना है।
जो अइआरो अ तं निंदे - इन सब विषयों में जो अतिचार हुए हों उनकी मैं निन्दा करता हूँ।