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सामान्य से सर्व पापों का प्रतिक्रमण गाथा - ३५
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दोनों श्रावक के लिए त्यागने योग्य हैं । मद एवं गारव का त्याग करने के लिए श्रावक को हमेशा सोचना चाहिए कि - 'मान एवं आसक्ति ये मेरा स्वभाव नहीं है, कर्म एवं कुसंस्कार के कारण प्रकट हुआ यह एक प्रकार का विकार है । इनके अधीन होने से मेरी आत्मा वर्तमान में भी शांति और समाधि गँवा देती है और नए कर्म का बंध करती है एवं कुसंस्कार के कारण भवांतर में भी सुखी नहीं होती । इसके बजाय मैं मानादि का त्याग करके विनय, नम्रता आदि गुणों को प्रकट करूँगा तो इस भव में भी सुख पाऊँगा और पुण्यबंध तथा सुसंस्कारों के कारण भविष्य में भी सुख की परंपरा प्राप्त करके परम सुख पा सकूँगा' ऐसा सोचकर श्रावक को मान गारव के संस्कारों को नष्ट करने का प्रयत्न करना चाहिए। श्रावक अगर ऐसा प्रयत्न न करे या शुभ भावों का सहारा लेकर, कुसंस्कारों के कारण, निमित्त मिलने से प्रकट होते हुए मानादि भावों को काबू में लाने का प्रयत्न न करे तो वह श्रावक जीवन के लिए दोष रूप है, क्योंकि श्रावक जीवन भी एक प्रकार से साधना का जीवन है | अतः उसमें मान, मद, आसक्ति या अनुकूलता के भाव रखने उचित नहीं, इसलिए दिन भर में ऐसे जो भी मलिन भाव हुए हों, उनको याद कर इस पद द्वारा उनकी निन्दा करनी है।
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सन्ना - चार प्रकार की संज्ञा ।
मोहनीयादि कर्म के उदय से जीव को आहारादि करने की इच्छा होती है, आहार आदि मिलने से आनंद का अनुभव होता है, जिससे पुनः पुनः आहारादि करने की इच्छा रहती है। इस प्रकार के भाव को आहार संज्ञा, भय संज्ञा, मैथुन संज्ञा एवं परिग्रह संज्ञा कहते हैं । इस संज्ञा को छोड़ने के लिए श्रावक सोचता है कि, 'इन संज्ञाओं के कारण मैं अनंतकाल से इस संसार में भटक रहा हूँ, एवं विविध प्रकार के दुःखों का पात्र बना हूँ। वर्तमान में भी जो अनेक प्रकार की कदर्थना मुझे प्राप्त हुई है उनका मूल कारण ये संज्ञाएँ ही हैं। इसलिए सुगुरु के पास संज्ञा का स्वरूप समझकर मुझे इनका त्याग करना चाहिए। उनके त्याग के लिए 3. संज्ञा :- अशातावेदनीय - मोहनीयकर्मोदय
चेतनाविशेषाः ।
सम्पाद्या आहाराभिलाषादि-रूपाः - समावायांग - टीका सूत्र ४
मोहनीयादि कर्मों के उदय से प्राप्त हुई आहारादि की अभिलाषावाली विशिष्ट चेतना शक्ति को संज्ञा कहते हैं ।