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सामान्य से सर्व पापों का प्रतिक्रमण गाथा-३५
गाथा:
वंदण-वय-सिक्खा-गारवेसु, सन्ना-कसाय-दंडेसु। गुत्तीसु अ समिईसु अ, जो अइआरो अ तं निंदे।।३५ ।। अन्वय सहित संस्कृत छाया : वन्दन-व्रत-शिक्षा-गारवेषु, संज्ञा-कषाय-दंडेषु च । गुप्तिषु च समितिषु च, योऽतिचार: तं निन्दामि।।३५।। गाथार्थ :
देव-गुरु को वंदन, बारह व्रत, (ग्रहण-आसेवन) शिक्षा, तीन गारव, चार संज्ञा, चार कषाय, तीन दंड, तीन गुप्ति, पाँच समिति - इन सबके विषय में जो अतिचार लगे हों उन सबका मैं निन्दारूप प्रतिक्रमण करता हूँ। विशेषार्थ :
वंदण - देववंदन, गुरु वंदन। गुणवान के गुणों के प्रति आदर सूचित करनेवाली मन-वचन-काया की शुभ प्रवृत्ति को वंदन कहते हैं। दोषमुक्ति और गुणप्राप्ति यह श्रावक का लक्ष्य है और गुणवान के प्रति आदर व्यक्त करने से गुण प्राप्ति का यह लक्ष्य सुलभता से सिद्ध होता है। इसलिए अनंत गुणों के सागर अरिहंत-परमात्मा का तीन संध्याओं में दर्शन, वंदन एवं पूजा करना तथा संयमादि गुणों के स्वामी श्रमण-भगवंतों का दिन में तीन बार वंदन, दर्शन, शुश्रुषादि करना, ऐसा नियम गुणेच्छु श्रावक को लेना चाहिए। इस प्रकार के नियम पालन से ही वह अपने दोषों को दूर करके समतादि गुणों को प्राप्त कर सकता है।
प्रमाद आदि दोषों के कारण श्रावक इस प्रकार के नियम न ले, नियम ले तो उनका यथायोग्य पालन न करे, बाह्य रीति से सुन्दर पालन करे परंतु प्रभुदर्शनादि क्रिया द्वारा आत्मगुणों के दर्शन कर, उन गुणों को अपने में प्रकट करने का प्रयत्न न करे, तो श्रावक के लिए वह सब दोष रूप है। दिन में हुए ऐसे दोषों को याद करके इस पद द्वारा उनकी निन्दा करनी हैं।