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सामान्य से सर्व पापों का प्रतिक्रमण गाथा-३४
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विशेषार्थ :
(सव्वस्स वयाइआरस्स) कारण काइअस्स(स्सा) पडिक्कमे - (सर्व व्रतों के अतिचार में) कायिक अतिचारों का काया द्वारा मैं प्रतिक्रमण करता
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व्रतों को मलिन करनेवाले अतिचार लगभग तीनों योगों से उत्पन्न होते है; तो भी किसी अतिचार में काया की मुख्यता होती है, तो किसी में मन, वचन की मुख्यता होती है। इस कारण यहाँ मुख्यता को लक्ष्य में रखकर बताया है कि, काया द्वारा जो दोष हुआ हो, अर्थात् काया पर नियंत्रण नहीं रहने के कारण, काया के ममत्व के कारण या कायिक अनुकूलता प्राप्त करने के कारण, अगर किसी जीव का वध, बंध आदि हुआ हो, तो वह व्रत संबंधी कायिक अतिचार है। 'हे भगवंत ! इन सब दोषों का मैं काया से प्रतिक्रमण करता हूँ अर्थात् जिस काया के राग से इन दोषों का सेवन हुआ है, उस काया के राग को तप, कायोत्सर्ग आदि क्रिया द्वारा दूर करने का प्रयत्न करता हूँ एवं पुन: व्रतादि की शुभ प्रवृत्ति में काया को स्थिर करता हूँ।
(सव्वस्स वयाइआरस्स) वाइअस्स वायाए - (सर्व व्रतों के अतिचार में) वाचिक अतिचारों का वाणी द्वारा (मैं प्रतिक्रमण करता हूँ )।
व्रतधारी श्रावक की भाषा किसी को पीड़ा हो ऐसी नहीं होनी चाहिए। ऐसा होते हुए भी कषाय की अधीनता से, विषयों की आसक्ति से या सोचे बिना, बोलने के कारण किसी को दु:ख हो वैसे शब्द बोले हों, किसी के उपर गलत आक्षेप लगाए हों, किसी को कलंक लगे ऐसी वाणी का व्यवहार किया हो या अपने कुल को शोभा न दे वैसे वचन बोले हों, तो वे सब व्रत संबंधी वाणी के अतिचार हैं। जैसे काया की ममता का त्याग करने का उपाय कायोत्सर्ग है, वैसे ही असभ्य, अनुचित, कषायग्रस्त, अप्रिय और दूसरों के दोष बोलकर वचन से जिस दोष का सेवन हुआ हो उससे मुक्त होने का उपाय स्वाध्याय और मौन है। 'इसलिए श्रावक भगवान से कहता है कि 'हे भगवंत ! इन सब दोषों का मैं वाणी से प्रतिक्रमण करता हूँ अर्थात् दुःखार्द्र हृदय से की हुई भूल के बदले मिच्छामि दुक्कड़ देता हूँ एवं पुनः ऐसा न हो उसके लिए जिस अनुचित वाणी से मैंने पाप किया था उससे मुक्त होने के लिए मैं अब से अपनी वाणी का ज्यादा से ज्यादा