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वंदित्तु सूत्र
अणवट्ठाणे - अनवस्थान या अस्थिरता के विषय में । मन की स्थिति या स्थिरता ‘अवस्थान' और उसका अभाव 'अनवस्थान' है। सामायिक व्रत का स्वीकार करने के बाद उसकी काल मर्यादा तक मन स्थिर न रखना, वह अनवस्थान नाम का चौथा अतिचार है।
समभाव के सुख का जिसने लेश मात्र भी आस्वाद किया हो अथवा शास्त्र वचनों के आधार से जिसमें सामायिक व्रत के प्रति अत्यंत बहुमान भाव प्रकट हुआ हो, वैसे साधक प्राय: कभी भी अस्थिर मन से सामायिक नहीं करते; तो भी कर्म की परतंत्रता एवं कषायों की कुटिलता बहुत भयंकर होती है। वह कभी साधक के मन को भी सामायिक के भाव से डगमगा देती है, तब इस दोष की संभावना होती है।
कई लोग ओघ संज्ञा या लोक संज्ञा से प्रेरित होकर सामायिक व्रत लेते हैं, परन्तु उनको समभाव के प्रति अंतरंग बहुमान भाव नहीं होता। इस कारण से उनका मन सामायिक में स्थिर नहीं रहता। सामायिक कब पूरी हो वैसे विचार उनके मन में चलते रहते हैं। वे विधिवत् सामायिक लेते भी नहीं और पूर्ण भी नहीं करते । सामायिक के प्रति बहुमान के बिना साधकों को निरंतर ये दोष लगता है। इसके अलावा अस्थिर मन से सामायिक करने वाले को समता का अंतरंग सुख कभी भी अनुभव में नहीं आता।
तहा सइविहूणे - तथा स्मृतिविहीनत्व के विषय में।
सामायिक व्रत का स्वीकार करने के बाद निद्राधीन होकर अथवा शून्य मनस्कता से सामायिक का समय भूल जाना या मैं सामायिक में हूँ इस बात को भूल जाना वह ‘स्मृति-विहीनता' नाम का पाँचवाँ अतिचार है।
यह अतिचार भी प्राय: सामायिक के प्रति बहुमान भाववाले श्रावक को नहीं लगता, क्योंकि जिसे इस व्रत के प्रति बहुमान भाव होता है, वह तो महायोद्धा की भाँति सामायिक करता है। जैसे महायोद्धा नहीं भूलता कि, 'मैं युद्ध में उतरा हूँ' उसी तरह मोह को परास्त करके समभाव को सिद्ध करने के लिए संग्राम करता साधक 'मैं सामायिक में हूँ' यह बात कभी नहीं भूलता तो भी प्रमाद आदि दोषों के कारण कभी ऐसी भूल होने की संभावना रहती है। ऐसे दोषों से बचकर