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बारहवाँ व्रत गाथा-३१
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सुहिएसु अ दुहिएसु अ जा मे अस्संजएसु अणुकंपा रागेण व दोसेण व - सुविहित साधु एवं दु:खी साधु एवं गुरुनिश्रा में रहे हुए साधु को, राग से या द्वेष से, दान देना।
सुहिएसु (सुहितेषु) - शुभ हितवाले साधु में अर्थात् गुणों की आराधना करते हुए अपना हित कर रहे हों ऐसे साधुओं में एवं उपदेशादि द्वारा दूसरों को भी हित के मार्ग में जोड़ने का प्रयत्न कर रहे हों, ऐसे साधुओं में।
दुहिएसु (दुःखितेषु) - दु:खी या पीड़ित साधु में, यहाँ दु:खी का अर्थ दुःखी साधु नहीं करना है, परंतु तप की आराधना करते हुए या रोगादि के कारण जो शरीर से कृश हो गए हों, बाह्य रीति से जिनके शरीर में कोई पीड़ा हो ऐसे साधु में।
अस्संजएसु (अस्वंयतेषु) - अस्वंयतो के विषय में।
जो गुरुनिश्रा में रहकर, गुरु आज्ञा के अधीन होकर, मन, वचन, काया से गुरु को समर्पित होकर साधना कर रहे हों, वैसे साधुओं के विषय में।
अनुकंपा रागेण व दोसेण व - उपरोक्त सुहित या संयमी साधु को राग या द्वेष से दान देना (भक्ति करना)।
राग से देने में अर्थात् यह मेरे स्नेही हैं, स्वजन हैं, परिचित हैं, ऐसे लगाव या अपनेपन से दान करे तो इस व्रत में दोष लगता है, क्योंकि अपने स्नेही, स्वजन या परिचित मुनि को भी भक्ति से दान करना होता है; अर्थात् ये गुणवान हैं, ऐसा मानकर गुणी को आदर सहित दान करना है, परंतु परिचय के कारण रागवश दान नहीं करना है। इसका अर्थ परिचित को दान न देना ऐसा नहीं है, परंतु उनको भी भक्ति से, संसार सागर से तैरने की इच्छा से दान करना चाहिए, नहीं तो इस व्रत में दोष लगने की संभावना रहती है।
मुनि को जिस प्रकार राग से दान नहीं देना चाहिए, उसी प्रकार द्वेष से या अनादर से भी दान नहीं देना चाहिए, जैसे कि यह साधु क्षुधादि से पीड़ित है, उसके पास आहार पानी नहीं है, हम नहीं देगें तो उस बिचारे को कौन देगा? ऐसे अनादर भाव से दान देना या मांगने आया है तो दे दो, उसे देकर रवाना करो, ऐसे द्वेष या निन्दा के भाव से सुपात्र को दान करने से भी इस व्रत में दूषण लगता है।