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वंदित्तु सूत्र
अथवा जिनके वस्त्र जीर्ण हो वैसे अस्संजएसु (अस्वंयतेषु) - अस्वंयतों के विषय में, अर्थात् जो अपनी मर्जी से विहार नहीं करते अर्थात् स्वेच्छाचारी नहीं है, परंतु गुरु आज्ञा में जो विचरते हैं, वैसे साधुओं के विषय में, मुझ से जो अनुकम्पा अर्थात् भक्ति, राग से या द्वेष से हुई हो, उसकी मैं निन्दा करता हूँ, गर्हा करता हूँ। विशेषार्थ :
स्व एवं पर के उपकार के लिए अपनी वस्तु अन्य को देना उसे दान कहते हैं। उसके पाँच प्रकार हैं : अभयदान, ज्ञानदान, सुपात्रदान, अनुकंपादान एवं उचित दान। उसमें से यहाँ सुपात्रदान का विषय चल रहा है। सुविशुद्ध संयम का पालन करनेवाली संयमी आत्माएँ, दान के लिए सुपात्र हैं। ऐसे सुपात्र को किसी भी प्रकार की भौतिक आकांक्षा बिना, मात्र भवनिस्तार की भावना से निर्दोष आहार. वस्त्र, पात्र वगैरह का उल्लासपूर्वक दान करने को सुपात्र दान कहते हैं।
इस प्रकार के सुपात्र दान करने की भावनावाले श्रावक को सर्वप्रथम पात्रअपात्र की परीक्षा करनी चाहिए । परीक्षा करके सुपात्र को पाकर उसको अति
आदर और बहमान से दान देना चाहिए । दान करते समय कोई भौतिक आशंसा रखे बिना मात्र इतनी ही भावना रखनी चाहिए कि इन महात्मा की भक्ति करके मैं भी संयमादि गुणों की शक्ति प्रकट करके शीघ्र संसार सागर से पार हो जाऊँ। ऐसी भावनापूर्वक दान किया जाए तो वह दान महा कर्म निर्जरा का कारण बन सकता है, वरना इस गाथा में बताए गए तरीके से दोष का कारण भी बन सकता है।
2. अस्संजएषु - अस्वंयतेषु न स्वं-स्वच्छंदेन यता उद्यता: तेषु शब्द की ऐसी व्युत्पत्ति करने
से जो अपनी मर्जी से संयम में उद्यम नहीं करते पर हमेशा गुरु की आज्ञानुसार ही संयम का उद्यम करते हैं । उन्हें अस्वंयत भी कहा जाता है अर्थात गुरु की आज्ञा अनुसार जीनेवाले साधु को 'अस्संजएस' माना जाता है।
- वन्दारुवृत्ति 3. अनु-पश्चात्, दीन-दुःख्यादि-दर्शनानन्तरं कम्पा कम्पनं आत्मप्रदेशानां कम्पनं तदुःख-परिहार-गोचरेच्छात्मकम् ।
- बृहत्कल्पवृत्तौ अनुकम्पा-अनु=पश्चात्, कंप-कंपना-हृदय आर्द्र होना। दुःखिओं के दुःख को देखकर हृदय दयार्द्र होना, उनके दु:ख दूर करने की इच्छा होनी, वह अनुकंपा है। परन्तु यहाँ अनुकंपा शब्द का विशिष्ट अर्थ में अर्थात् भक्ति के अर्थ में उपयोग हुआ है।