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वंदित्तु सूत्र
विशेषार्थ :
संलेखना' का सामान्य अर्थ अनशन है। विशेषतौर से सोचें तो अंदर में पड़े हुए मोह एवं ममत्व के भावों को खोद-खोदकर निकालने की एक विशिष्ट प्रक्रिया
को अर्थात् विषयों और कषायों का जोर घटाने की क्रिया को भी संलेखना कहते हैं। जन्म से जिसका सहवास है वैसे शरीर का ममत्व मृत्यु की वेदना के समय समाधि को खंडित करता है। प्रयत्न से प्राप्त की हुई धनसंपत्ति या परिवार आदि को छोड़कर जाने का समय जब नजर के समक्ष दिखाई देता हो तब मानव व्याकुल हो घबरा जाता है, विवेक चूक जाता है। मन को आत्मभाव या परमात्म भाव में स्थिर करने के बदले अन्य की चिंता उसके मन को चंचल कर देती है। ऐसे चंचल मन के कारण समाधिमरण प्राप्त नहीं होता।
समाधिमरण द्वारा भव परंपरा को उत्तरोत्तर उज्जवल बनाकर मोक्ष के महाआनंद तक जिसको पहुँचना है वैसा साधक, मरण समीप आने पर सावधान बन जाता है। तप द्वारा शरीर के ममत्व को तोड़ने का यत्न करता है, श्रुत (स्वाध्याय) द्वारा अपने मन को तमाम प्रकार के बाह्य भावों से हटाकर आत्मा में स्थिर रहने का प्रयास करता है, एवं शील द्वारा अनेक प्रकार की चेष्टाओं का त्याग करके काया को किसी उचित आसन में स्थिर करने का प्रयत्न करता है। इस प्रकार श्रुत, शील
और तपादि द्वारा, अपनी शक्ति का निर्णय करके, अंत समय समीप जानकर, चारों अथवा तीनों प्रकार के आहार का त्याग कर, काया को स्थिर करके, मन को आत्मभाव में स्थापन करने का जो प्रयत्न है उसे अनशन या संलेखना व्रत कहते हैं।
इस व्रत का स्वीकार करने के बाद उसके निरतिचार पालन से आत्मा की विशिष्ट शक्ति प्रकट होती है और साथ-साथ पुण्य प्रभाव भी बढ़ता है। पुण्योदय के कारण उसकी सेवा-शुश्रुषा और दर्शनादि के लिए जन समुदाय के साथे देवदेवेन्द्र भी आते हैं। ऐसे समय यदि मन चल-विचल हो तो इस गाथा में बताए हुए दोषों की संभावना रहती है। इस कारण साधक पहले से सावधान बन जाता है। 1 संलेखना = लिख धातु खोदने या कुतरने के अर्थ में है, जो तप-क्रिया कर्मों एवं कषायों को
खोद डालती है, वैसी क्रिया को संलेखना' कहते हैं। जैन शास्त्रों के अनुसार अर्थ करें तो आयुष्य के अंतिम समय में शास्त्रोक्त विधि अनुसार करने योग्य तप को संलेखना कहते हैं।