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वंदित्तु सूत्र
इसलिए इस प्रकार अप्रशस्त राग या द्वेष आदि के भाव से मुनि को दान नहीं देना चाहिए, परंतु प्रशस्त शुभ भाव से ही मुनि को दान देना चाहिए।
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इसके साथ-साथ इतना भी विशेष ध्यान रखना चाहिए कि, विशेष कोई कारण ज्ञात न हो तो मुनि को शुद्ध आहार- पानी आदि का ही दान करना चाहिए, परंतु भक्ति के प्रवाह में भावुक होकर विशेष कोई कारण बिना, उनके लिए तैयार किया हुआ आधाकर्मिक आदि दोषयुक्त अशुद्ध आहार आदि से भक्ति नहीं करनी चाहिए। वैसा करने से पुण्यबंध कम एवं पापबंध अधिक होता है।
द्वात्रिंशत्द्वात्रिंशिका ग्रंथ में तो कहा है कि सुपात्र' को अनुकंपा बुद्धि से अर्थात् यह बिचारा दु:खी है ऐसी विपरीत बुद्धि से दान देने में दोष लगता है, क्योंकि सुपात्र में अनुकंपा बुद्धि विपरीत बुद्धि है। मुनि कभी भी करूणा का पात्र नहीं होता । करूणा के पात्र तो दीन, दुःखी या अनाथ जीव होते हैं। आहारादि की प्राप्ति हो या न हो तो भी मुनि कभी दीन नहीं होता । वह तो सदा अपनी मस्ती में जीता है। हाँ ! मुनि भगवंत को भी आहारादि की जरूरत पड़ती है, परंतु वे नहीं मिले तो व्याकुल हो जाऐं ऐसे कायर नहीं होते । दान में योग्य आहारादि मिले या न मिले मुनि भगवंत की मन स्थिति समान रहती है, क्योंकि 'मिले तो संयम वृद्धि और न मिले तो तपोवृद्धि' ये जिन वचन उन्हें आत्मसात् होते हैं। ऐसे गुणसंपन्न महात्माओं ऊपर करूणा की बुद्धि कर्मबंध का कारण है। विहारादि के कारण कभी मुनि श्रमित या क्षुधादि से पीड़ित हो सकता है एवं ऐसे मुनि को देखकर श्रावक उनके श्रम या पीड़ा को दूर करने के लिए आहार आदि वोहराने की इच्छा करता है, परंतु तब भी उसको उनके प्रति दया का भाव नहीं होता अर्थात् ये बिचारा साधु भूखा है ऐसा भाव नहीं होता परंतु संयमादि गुणों के कारण उनके प्रति तीव्र भक्ति भाव रहता है।
2. अनुकम्पाऽनुकम्प्ये स्याद्, भक्ति: पात्रे तु सङ्गता ।
अन्यथाधीस्तु दातृणामतिचारप्रसञ्जिका ।।
- दानद्वात्रिंशिका श्लो. २
अनुकंपनीय में अनुकंपा उचित है, भक्ति तो पात्र में = सुपात्र में ही उचित है। इससे विपरीत बुद्धि तो दातारको दोष लगाती है।