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बारहवाँ व्रत गाथा-३२
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अवतरणिका:
अब बारहवें अतिथि संविभाग व्रत में सुपात्र का एवं दान देने योग्य वस्तु का स्वरूप बताकर उनके विषय में भी प्रमाद के कारण करने योग्य कार्य न हो सका हो तो उसका प्रतिक्रमण करते हैं -
गाथा:
साहूसु संविभागो न कओ तव-चरण-करण-जुत्तेसु ।
संते फासुअदाणे, तं निंदे तं च गरिहामि ।।३२।। अन्वय सहित संस्कृत छाया : प्रासुकदाने सति तपश्चरण-करण-युक्तेषु साधुषु ।
संविभाग: न कृतस्तं निन्दामि तं च गहें।।३२ ।। गाथार्थ :
प्रासुक' (जीव रहित एवं ऐषणीय ४२ दोष रहित) आहार होते हुए भी, तपचारित्र एवं क्रिया से युक्त साधुभगवंतों के लिए संविभाग न किया हो अर्थात् भक्तिपूर्वक उनको दान न दिया हो, तो उस प्रमादाचरण की मैं निन्दा करता हूँ एवं गर्दा करता हूँ। विशेषार्थ :
साहूसु संविभागो न कओ तव-चरण-करण-जुत्तेसु - तप-चारित्र एवं क्रिया युक्त मुनिओं को दान न दिया हो।
बारहवें व्रत को स्वीकार करके जैसे सुपात्र को विधिपूर्वक दान न दें तो दोष लगता है, वैसे ही दान देने की अपनी शक्ति हो, दान देने योग्य आहार आदि अपने पास हो एवं पुण्य योग से सुपात्र का संयोग भी मिला हो; फिर भी अगर प्रमादादि दोषों के कारण दान न दें तो भी दोष लगता है। इसलिए इस गाथा में उन दोषों की निन्दा करते हुए सर्वप्रथम सुपात्र की पहचान करवाते हुए कहते हैं कि - 7. प्रगता असव उच्छ्वासादयः प्राणा यस्मात् स प्रासुकः। - वृन्दारुवृत्ति श्वासोच्छवासादि प्राण जिसमें से निकल गए हों उन्हें प्रासुक कहते हैं, अथवा निष्प्राण शरीर को प्रासुक कहते हैं।