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बारहवाँ व्रत गाथा - ३२
आराधना करते हैं; और जो संयम मार्ग की पोषक सत्तर प्रकार की क्रियाएँ अप्रमत्त भाव से कर रहे हैं, वैसे मुनिभगवंत दान के लिए सुपात्र हैं; परंतु जिन्होंने साधु का वेष पहना हो, रजोहरण रखा हो पर जो ऊपर बताए हुए तप, संयम या क्रिया मार्ग की आराधना नहीं करते, वैसे पार्श्वस्थ आदि साधु कुगुरु हैं। वे दान के लिए सुपात्र नहीं हैं।
सुपात्र साधु विद्यमान हो फिर भी प्रमादवश, लोभ से या परीक्षा करने की अपेक्षा से सुसाधु को दान न दे तो श्रावक के लिए दोष है।
सुपात्र की पहचान कराने के बाद अब दान देने के योग्य चाहिए वह बताते हैं -
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वस्तु
कैसी होनी
संते फासुअदाणे - दान योग्य प्रासुक वस्तु होने पर भी।
दान देने योग्य वस्तु प्रासुक अर्थात् जीव रहित (अचित्त) एवं आहार संबंधी शास्त्र में बताए हुए ४२ दोष रहित निर्दोष होनी चाहिए। ऐसी वस्तु घर में हो और सुपात्र साधु भगवंत पधारे हों तो भी प्रमाद, कृपणता, उपयोगशून्यता, अन्यमनस्कता, अन्य कार्य में व्यग्रता आदि दोषों के कारण सुपात्र को दान न दिया हो, तो वह श्रावक के लिए अपराध है, क्योंकि वह अपने कर्त्तव्य से चूका है, अपने हित को उसने दूर धकेल दिया है, प्राप्त पुण्य क्षणों को उसने गँवा दिया है । इसलिए ऐसे दोषों की निन्दा करते हुए अब कहते हैं -
तं निंदे तं च गरिहामि - उनकी मैं निन्दा करता हूँ एवं गर्हा करता हूँ।
सुपात्र दान की विधि में पात्र-अपात्र की परीक्षा न की हो, सुपात्र में करूणा बुद्धि की हो या अपात्र में भक्ति भाव किया हो, अकारण अशुद्ध आहार वोहराया (दिया) हो, ये सब इस व्रत विषयक अतिचार हैं। ऐसे कोई भी दोष का आसेवन हुआ हो तो उन पापों की आत्मसाक्षी से निन्दा करता हूँ एवं गुरु समक्ष गर्हा करता हूँ ।
सुपात्रदान के लिए तीन चीजें जरूरी हैं - चित्त, वित्त एवं पात्र " उसमें संयमी महात्मा'सुपात्र' हैं, निर्दोष आहार ' वित्त' है और दान देने योग्य भावना, अध्यवसाय या संवेदना वह ‘चित्त' है। इन तीनों का सुयोग मिलने पर एक बार भी किया हुआ दान शालिभद्र जैसा वैभव और उसके प्रति अनासक्त रहकर उसके त्याग की - तत्त्वार्थाधिगम सूत्र
11 विधि - द्रव्य - दातृ - पात्र विशेषाद् तद् विशेष : ||७ - ३४॥