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बारहवाँ व्रत गाथा-३१
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इस गाथा का उच्चारण करते हुए श्रावक सोचता है कि - 'संसार सागर को तरने का अमोघ साधन संयम है, परंतु अविरति के कारण घर में बैठा हुआ मैं इस संयम के लिए समर्थ नहीं, तो भी गुणवान आत्माओं की भक्ति, बहुमान एवं सत्कारादि द्वारा मैं अपने में भी यह सामर्थ्य प्रकट कर सकूँ, इसलिए मैंने यह व्रत स्वीकार किया था। तो भी कृपणता, अनुपयोग आदि दोषों के कारण इस व्रत संबंधी बहुत से दोषों का आसेवन मुझ से हो गया है। उन सब दोषों को याद करके, आत्मसाक्षी से उनकी मैं निन्दा करता हूँ, गुरु समक्ष उनकी गर्दा करता हूँ और इस व्रत का निरतिचार पालन करने का सत्त्व मुझ में भी प्रकट हो, इसलिए शालिभद्र, धन्नासार्थवाह जैसे पूर्वकालीन महात्माओं को प्रणाम करके उनसे प्रार्थना करता हूँ कि मुझ में भी आप जैसी शक्ति प्रकट हो, जिससे मैं भी निर्दोष रीति से इस व्रत का पालन कर भवसागर तर सकूँ ।' अवतरणिका :
बारहवें व्रत के पाँच अतिचार बताने के बाद भी इस व्रत में और भी जिन अतिचारों की संभावना हैं, उन्हें अब बताते हैं - गाथा :
सुहिएसु अ दुहिएसु अ, जा मे अस्संजएसु अणुकंपा। रागेण व दोसेण व, तं निंदे तं च गरिहामि ।।३१।। अन्वय सहित संस्कृत छाया : सुखि(हि) तेषु च दुःखितेषु च, अस्वं(सं)यतेषु मे या अनुकम्पा।
रागेण वा द्वेषेण वा, तां निन्दामि तां च गर्हे ॥३१।। गाथार्थ :
सुहिएसु' (सुहितेषु) = शोभन हितवाले और दुहिएसु (दुःखितेषु) - दुःखी या पीड़ित, अर्थात् तप या रोगादि के कारण जिनको शारीरिक पीड़ा हो रही हो 1 सुहितेषु - सुष्ठ हितं ज्ञानादित्रयं येषां ते सुहिताः तेषु
- वन्दारुवृत्ति