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बारहवाँ व्रत गाथा - ३०
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पिहिणे - सचित्तपिधान ।
सचित्त श्रीफल, बिजोरा वगैरह पदार्थों से दान देने योग्य वस्तुओं को ढाँकना अथवा नींबू वगैरह सचित्त पदार्थ वाले ढक्कन से ढकी हुई तपेली आदि में से वोहराना यह 'सचित्तपिधान' नामक दूसरा अतिचार है।
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मुनि भगवंत अन्य को लेश मात्र भी पीड़ा हो ऐसी प्रवृत्ति नहीं करते। इसलिए साधु को दान देने योग्य चीज़ के नीचे या ऊपर अगर सचित्त अर्थात् जीवमय पदार्थ रखा हुआ हो और दान देते समय हलन चलन के कारण उस जीवमय पदार्थ के जीव को पीड़ा होने की संभावना हो तो मुनि भगवंत वैसा दान नहीं लेते। अतः कई बार उपयोग के स्खलन से या कई बार लोभादि के कारण, दान नहीं देने की बुद्धि से, श्रावक दान देने योग्य वस्तु को सचित्त से ढाँक दे तो उसे यह दोष लगता है।
ववएस परव्यपदेश ।
'पर' अर्थात् दूसरा और ‘व्यपदेश' अर्थात् व्यवहार । दान देने की बुद्धि से पर (अन्य ) की वस्तु को अपनी बतानी, और दान न देने की बुद्धि से अपनी चीज़ को भी यह पराई है ऐसा बताना, यह परव्यपदेश नाम का तीसरा अतिचार है।
यह वस्तु मेरी नहीं, ऐसा कहने से तो मुनि भगवंत आहारादि नहीं लेंगे, इसलिए दान देने की तीव्र भावना से पराई वस्तु को अपना बताना एवं दान न देने की बुद्धि से अपनी वस्तु को पराई बताना; इससे व्रतविषयक अतिचार लगता है। जैन धर्म विवेक एवं भाव की प्रधानता वाला धर्म है। दूसरे की वस्तु को अपनी कहने में विवेक की कमी है एवं अपनी वस्तु को पराई कहने में भाव की न्यूनता है। भाव एवं विवेक की कमी वाला दान दोष युक्त है। ऐसा दान मुनि को देने से 'परव्यपदेश' नाम का तीसरा अतिचार लगता है।
मच्छरे चेव - और मात्सर्य
मात्सर्य का अर्थ है दूसरों का अच्छा सहन न होना अथवा मात्सर्य अर्थात् क्रोध। दूसरे को दान देते हुए देखकर कहना कि, "मैं उससे कुछ कम नहीं हूँ ।' अर्थात् दूसरे के दान से खुद का दान अधिक है वैसा जताने के लिए दान करना अथवा श्रमण किसी विशेष कारण से किसी वस्तु की याचना करे तो उन पर कोप