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बारहवाँ व्रत गाथा-३०
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संभावना रहती है । बाद में श्रावक अपनी शक्ति अनुसार साधु को थोड़ी दूर तक छोड़ने जाता है और वापस आकर जिस वस्तु का दान दिया हो उस द्रव्य से ही भोजन करता है।
जिज्ञासा : मुनि को आहार वोहराते समय श्रावक को कैसी भावना से अपने हृदय को भावित करना चाहिए ?
तृप्ति : मुनि को आहार प्रदान करते समय श्रावक को मुनि के निर्दोष जीवन का विचार करते हुए उनकी कल्याणकारी प्रवृत्तिओं को याद करना चाहिए । एवं उनके अहिंसक एवं क्षमा प्रधान जीवन के सामने अपनी कदम-कदम पर होने वाली हिंसा एवं कषायों की प्रवृत्ति की तुलना करके अपनी प्रवृत्तियों की निन्दा करनी चाहिए। इसके अतिरिक्त उसे सोचना चाहिए कि ये महापुरुष तो क्रोध के स्थान में भी समता धारण करते हैं । मान के स्थान में कितने नम्र दिखाई देते हैं। विनय और विवेक तो कभी चूकते ही नहीं। कहीं भी आसक्ति नहीं करते। सचमुच ऐसे महात्माओं की भक्ति करके मैं भी ऐसे गुण प्रकट करूं।' इस तरह मुनि के गुण एवं सुपात्र दान के लाभों की विचारणा से अपने हृदय को भक्ति भाव से भरकर श्रावक को दान देना चाहिए। ऐसी भावना के प्रभाव से आत्मा के चारित्रादि गुण को आवरण करनेवाले कर्म शिथिल होते हैं एवं कभी तत्काल या कभी समय आने पर उस श्रावक को भी वे चारित्रादि गुण प्राप्त होते हैं।
जिज्ञासा : गाँव में मुनि भगवंत न हों तो श्रावक को अपने व्रत का पालन कैसे करना चाहिए ?
तृप्ति : गाँव में मुनि भगवंत न हों तो श्रावक गृहद्वार के पास आकर चारों दिशाओं का अवलोकन करे। कहीं से मुनिभगवंत आते हैं कि नहीं उसकी तलाश करे। कहीं से भी आते न दिखाई दें तो शुद्ध चित्त से विचारे कि 'धन्य है वह नगरी ! धन्य है वहाँ के लोगों ! जहाँ साधु-भगवंत सुलभ हैं। मैं पुण्यहीन हूँ। मुझे सदा के लिए तो संयमी आत्मा का सुयोग मिलता नहीं, तो भी आज अगर किसी महात्मा का योग हुआ होता तो मैं उनकी अन्नादि से भक्ति करके मेरी आत्मा का कल्याण करता'। ऐसी भावना का भावन करे और फिर भी किसी साधु या साध्वी का योग प्राप्त न हो तो शक्ति हो तो उपवास करे और न हो तो श्रावक या श्राविका की आहारादि से भक्ति करने के बाद स्वयं भोजन करे। क्योंकि