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बारहवाँ व्रत गाथा-३०
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विशेषार्थ :
सम्यक्त्वमूलक बारह व्रतों में अंतिम ‘अतिथिसंविभाग व्रत' है। अतिथि को दान देने के बाद भोजन करना, उसे अतिथिसंविभाग व्रत कहते है। उसमें जिसने तिथि', पर्व या लौकिक व्यवहार का त्याग किया है अर्थात् अमुक पर्व दिवस में ही आराधना करना, ऐसा जिनका नियम नहीं, परंतु जिनका पूरा समय आत्मधर्म की साधना के लिए ही है, ऐसे महापुरुषों को अतिथि कहते हैं। ऐसे अतिथि में 'भिक्षु' आदि का समावेश हो सकता है, परंतु प्रस्तुत में श्रावक धर्म का अधिकार होने से अतिथि के रूप में वीतराग सर्वज्ञ प्रणीत संयम की साधना करने वाले साधु भगवंतों को ही अतिथि समझना है और उनके संयमादि गुणों की पुष्टि करे ऐसे
आहार, वस्त्र, पात्र या औषधादि का विधिवत् दान करना वह अतिथि-संविभाग व्रत है। विधिवत् दान करना अर्थात् देश, काल, आदि जानकर श्रद्धा, सत्कार आदि से दान करना। 1 तिथिपर्वोत्सवाः सर्वे त्यक्ता: येन महात्मना।
अतिथिं तेन जानीयाच्छेषमऽभ्यागतं विदुः॥ - द्वात्रिंशत् द्वात्रिंशिका-१ 2. वर्तमान काल में चौविहार उपवास के साथ रात-दिन का पौषध करके दूसरे दिन ठाम
चौविहार ऐकासना करना और साधु भगवंत ने जो वस्तु वहोरी हो उस वस्तु से ही भोजन करके अतिथिसंविभाग व्रत किया जाता है। इस व्रत को स्वीकार करनेवाले को वर्ष में जितने दिन अतिथिसंविभाग करना हो उन दिनों की संख्या निश्चित कर लेनी चाहिए।
- तत्त्वार्थाधिगमसूत्र (अ.७ से १६) 3 विधिवत = (१) देश - इस देश में अमुक वस्तु सुलभ है कि दुर्लभ, इत्यादि विचार करके दुर्लभ वस्तु का अधिक प्रमाण में दान देना आदि । (२) काल - सुकाल है या दुष्काल इत्यादि का विचार करना। दुष्काल हो और अगर हमें आहारादि सुलभ हो तो साधुओं को अधिक प्रमाण में वोहराना। किस समय किस वस्तु की अधिक जरूरत है, वर्तमान में कौन सी वस्तु सुलभ या दुर्लभ है इत्यादि विचार करके उस प्रमाण से वोहराना आदि। (३) श्रद्धा - विशुद्ध विचारों से वोहराना। कोई घर आए तो देना पडता है इसलिए देते है या नहीं देंगे तो बुरा लगेगा इसलिए देते हैं ऐसी बुद्धि से नहीं, किन्तु इनका हमारे ऊपर महान उपकार है, हमें भी इसी रास्ते जाना है । उनको दान देने से हम इस मार्ग पर चलने के लिए समर्थ बन सकेंगे और हमारे अनेक पाप नाश हो जाएँगे इत्यादि विशुद्ध भावना से दान देना चाहिए।