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वंदित्तु सूत्र
व्रतधारी श्रावक को ईर्या, भाषा एवं ऐषणा समिति के तथा वचन गुप्तिकायगुप्ति के पालन में जो जो दोष लगे हों, उन सबकी भी इस गाथा का उच्चारण करते समय यथायोग्य विचारणा कर लेनी चाहिए।
तइए सिक्खावए निन्दे - तीसरे शिक्षाव्रत के विषय में जो अतिचार लगे हों उनकी मैं निन्दा करता हूँ।
पौषध व्रत का स्वीकार करके दया के परिणामपूर्वक नीचे देखकर न चले हों, मुहपत्ति के उपयोग बिना अनावश्यक बातचीत या विकथा की हो, अपने लिए
आहार बनवाया हो, वस्त्रादि जैसे-तैसे लिए हों, रखे हों, मल-मूत्र का मनचाही जगह पर, मनचाहे ढंग से विसर्जन किया हो, मन-वचन-काया का मनचाहा प्रवर्तन किया हो, ये सब पौषध व्रत विषयक अतिचार हैं। श्रावक इन सब अतिचारों का आलोचन करके उनकी आत्मसाक्षी से निन्दा करता है। इस गाथा का उच्चारण करते समय श्रावक सोचता है कि -
'सर्वविरति स्वीकार करने की तो मेरी शक्ति नहीं है, परन्तु, उस शक्ति को प्रकट करने के लिए पर्वतिथिओं में पौषध करने का मैंने निर्णय किया है । तो भी संसार का राग सब पर्वतिथियों में पौषध लेने में बाधा उत्पन्न करता है और दिन या रात्रि का जब भी पौषध लेता हूँ, तब भी अप्रमत्त रूप से जिस प्रकार की आराधना होनी चाहिए वो नहीं हो सकती है। प्रमाद के कारण बहुत से दोषों का आसेवन हो जाता है। उन दोषों को याद करके, मैं सहृदय उनकी निन्दा करता हूँ, गुरु भगवंत के पास गर्दा करता हूँ। पुन: ऐसे दोष न लगे उसके लिए मरणांत उपसर्ग में भी निरतिचार पौषध व्रत का पालन करने वाले सुव्रत सेठ आदि को प्रणाम करके, उनके जैसा व्रत पालन का सामर्थ्य मुझ में भी प्रकट हो, ऐसी प्रार्थना करता हूँ और विशुद्ध व्रतपालन में पुनः स्थिर होता हूँ।' चित्तवृत्ति का संस्करण : __ साधु जीवन की शिक्षा प्राप्त करने का सुनहरा अवसर याने पौषध । ऐसे सुंदर अनुष्ठान का बारबार और निर्दोष पालन करने के लिए श्रावक को याद रखना चाहिए कि,